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भगवान बेच कर रोटी खरीदने की कोशिश...

कविताएं लिखने, किसी और की कविताएं पढ़ने और उन्हें सहेजकर रखने की मेरी पुरानी आदत है। एक कविता जो आज से आठ-नौ साल पहले प्रभात खबर के रविवार के अंक में छपी थी, उसकी कतरन अन्य कतरनों के साथ पड़ी हुई थी। आज अचानक कतरनों को उलटते वक्त उस पर नजर गयी और कई बार पूरी तन्मयता के साथ पढ़ता चला गया। अब आप सबों को भी इसे पढ़ाने की इच्छा जगी है। कविता है मोही नाम की एक लड़की की, जो उस वक्त बेगूसराय-बिहार के एक डीएवी पब्लिक स्कूल में दसवीं की छात्रा थी। फिलहाल कहां है यह मुझे मालूम नहीं, लेकिन उस वक्त प्रभात खबर, रविवार के संपादकीय प्रभारी अविनाश जी हुआ करते थे. मोही की यह कविता पहली बार किसी पत्रिका में छप रही थी, यह उस कविता के साथ की गयी टिप्पणी से पता चलता है। सुनील मंथन शर्मा

कर्म ही पूजा है
मोही
मैं नास्तिक हूं- लोग ऐसा कहते हैं
आज सोचा सबकी शिकायत दूर कर दी जाय
आज पूजा कर ही ली जाय
सो चल पड़े बाजार की ओर
देवी-देवताओं की एक दुकान दिखी
दुकान क्या
सड़क पर बिखरी चंद मूर्तियां
और उन्हें बेचते दो फटेहाल बच्चे
शायद भगवान बेच कर
रोटी खरीदने की कोशिश कर रहे थे
कदम उस ओर ही बढ़ चले
दाम पूछे-
मोलभाव के बाद
पचीस रूपये में एक मूर्ति खरीद ली
लक्ष्मी जी की
सोचा- अब तो लक्ष्मी हमारी मुट्ठी में है
हमारे पूर्वज भी बड़े समझदार थे
पचीस रूपये के बदले
धन कमाने की अच्छी स्कीम बता गये

अब अगला कदम जेनरल स्टोर की ओर बढ़ाया
अगरबत्ती ली पंद्रह रूपये की
फिर ली मिठाई बीस रूपये की
चोट यहां भी खायी
कोई बात नहीं, भक्ति में- नो कंप्रोमाइज
अब आयी बारी फूलों की
हंसते-मुस्कराते फूलों को तोड़कर
उन्हें अपने परिवेश से अलग करने को
दिल नहीं माना
पर हम भी पक्का निश्चय रखनेवालों में हैं
जो सोच लिया सो सोच लिया
पूजा तो करनी ही है
सोच कर तोड़ लिया कुछ फूलों को

अब सभी उपकरणों से लैस
हम घर पहुंचे
एक कोने में फर्श साफ किया
मूर्ति को बिठाया
शुद्ध घी का दीपक जलाया
अगरबत्ती जलायी- प्रसाद चढ़ाया
मन में भक्ति की ज्योति जलाने की कोशिश की
पर असफल...
एक और कोशिश, वह भी नाकाम
शायद हममें वह भक्तिवाला ग्लैंड ही नहीं
जो हमारे पुजारियों में हुआ करता है
और जिसके हायपर सिक्रीशन से लोग
घर-बार त्याग वैरागी हो जाया करते हैं

खैर, अब एक आखिरी कोशिश की
हाथ जोड़े- आंखें मूंदीं
और लगे लक्ष्मी माता का गुणगान करने,
तभी....
-दो दिनों से भूखा हूं बाबा,
कुछ पैसे दे दो...
मन में जैसे कड़वाहट- सी भर गयी
प्रसाद की कटोरी उठायी
और ले जाकर उस भिखारी की झोली में
उलट दी
उस लंगड़े-लूले की आंखों में वह संतोष की झलक दिखायी दी
जो इन आडंबरों से कभी न मिलती शायद।

मूर्ति को उठाकर शो केस में लगाया
जमीन साफ की
फूल को जूड़े में लगाया
और चल पड़े काम पर
सच ही है-
कर्म ही पूजा है.

7 comments

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अच्छी कविता है.

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर कविता है...

ज्योत्स्ना पाण्डेय said...

अब सभी उपकरणों से लैस
हम घर पहुंचे

सुन्दर प्रयोग ...............

तभी....
-दो दिनों से भूखा हूं बाबा,
कुछ पैसे दे दो...
मन में जैसे कड़वाहट- सी भर गयी
प्रसाद की कटोरी उठायी
और ले जाकर उस भिखारी की झोली में
उलट दी
उस लंगड़े-लूले की आंखों में वह संतोष की झलक दिखायी दी
जो इन आडंबरों से कभी न मिलती शायद।

मूर्ति को उठाकर शो केस में लगाया
जमीन साफ की
फूल को जूड़े में लगाया
और चल पड़े काम पर
सच ही है-
कर्म ही पूजा है.

सारी बात इन पंक्तियों में ही निहित है ...........
शुभकामनाएं .

sandhyagupta said...

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ .

I4you_simel4me said...

Holi ki hardik subhkamano ke sath............

chetan vikram said...

behtareen.... main ni:shabd hun..

मदन शर्मा said...

मोलभाव के बाद
पचीस रूपये में एक मूर्ति खरीद ली
लक्ष्मी जी की
सोचा- अब तो लक्ष्मी हमारी मुट्ठी में है
हमारे पूर्वज भी बड़े समझदार थे
पचीस रूपये के बदले
धन कमाने की अच्छी स्कीम बता गये
सच ही है-
कर्म ही पूजा है
बहुत सुंदर कविता है...

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