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नई डिग्रियां (भाग-9)

शैल ने मां को इतना भर कहकर अपने मोबाइल का स्विच ऑफ कर दिया था। संध्या रानी ने एक-दो बार फिर सम्पर्क साधने की चेष्टा की, परन्तु हर बार स्विच ऑफ ही मिला था। वैसे वह शैल की आदत जानती थी। काम भर बातें कर के स्विच ऑफ कर देता था।
‘‘अजी सुनते भी हो, जरा सुनो न।’’ संध्या रानी तब पार्श्व में सोए अपने पति देवेन्द्र नाथ को झकझोरने लगी थी।
‘‘ओहो, क्यों क्या हुआ ?’’ कसमसाते हुए देवेन्द्र नाथ ने तब पूछा था।
‘‘अपना शैल घर आ रहा है। परसों सुबह वह आ जाएगा...’’
‘‘लगता है तुम पागल हो जाओगी। शैल के बारे में बराबर सोचती रहती हो, तब ही तो उसके बारे में सपने देखती हो। तुम्हारा मन निद्रित अवस्था में भी उसके आसपास भटकता रहता है...’’
‘‘तो मैं तुम्हे क्या सपने की बात बता रही हूं ? मैं सपना देखती हूं क्या ?’’ संध्या रानी इस पर तुनक कर बोली थी।
‘‘तो रात के इस समय तेरा शैल कहां से आ गया ?’’
‘‘अजी अभी-अभी उसने मोबाइल से कहा है। तुम्हें विश्वास नहीं है तो लो देख लो अभी-अभी उसका फोन आया है या नहीं ?’’ यह कह कर संध्या रानी ने मोबाइल के कुछ बटन दबाए और मोबाइल में उभर आया कि दस मिनट पहले शैल का फोन आया था।
इसे देख कर देवेन्द्रनाथजी नरम पड़ गए थे। वह भी बिछावन से उठ बैठे और एकटक संध्या रानी को देखते हुए उसके मनोभावों को पढ़ने की चेष्टा करने लगे थे।
‘‘संध्या। क्या कहा शैल ने ?’’
‘‘बस इतना ही कहा कि मैं कल नहीं, परसों घर आ रहा हूं। वैसे कल ही आता परन्तु कल विधानसभा है। परसों सुबह दस बजते-बजते आ जाऊंगा।’’
‘‘और कुछ नहीं कहा ? तुमने और कुछ पूछा भी नहीं क्या ?’’
‘‘पूछती क्या ? बस इतना कहकर उसने सम्पर्क काट दिया और फिर अपने मोबाइल का स्विच ऑफ कर दिया।’’
‘‘ओह!’’
‘‘क्यों तुम्हें शैल के आने की खबर सुनकर खुशी नहीं हुई क्या ?’’
‘‘यह किसने तुमसे कहा कि मुझे खुशी नहीं हुई ? मैं भी उतना ही खुश हूं संध्या, जितना तुम हो, बल्कि तुम से भी अधिक खुश हूं। न जाने कितने जान-पहचान होने का दावा करके बधाई दे चुके हैं। कुछ रईसों ने तो साफ कहा कि जरा हम पर दयादृष्टि रखने के लिए मंत्री जी को कह देंगे...’’
‘‘तो तुमने उन्हें क्या कहा देवेन्द्र ?’’
‘‘ओह, मैं क्या कहता? कह दिया कि देखिए भाई साहब, मैं अपने बच्चों के काम में टांग नहीं अड़ाता हूं। वे स्वयं समझदार हैं। आप उनसे ही अपनी समस्याएं कहिए। बस।’’
‘‘ओह। मैं तो डर गई थी कि कहीं तुमने कोई ऐसी-वैसी बात तो शैल के बारे में नहीं कह दी ?’’
‘‘मैं बेवकूफ हूं क्या ? वैसे उसने कुछ कहा नहीं कि इस बार कैसे हमारी याद उसे आ गई ? उसका मकसद...
‘‘तुम देवेन्द्र, शैल के बारे में यही दुराग्रह मन में गांठ बनाकर रखे हुए हो। वह अपना बालक है। कल तक नहीं, लेकिन आज उसे अपने माता-पिता की याद आ गई तो कौन सी अनहोनी बात हो गई ?’’
‘‘ठीक है संध्या। चाहे जिस रूप में वह आए। बालक तो अपना ही है।’’
‘‘मैं तुम्हारे इस कथन का मतलब नहीं समझ पाई कि चाहे जिस रूप में वह आए ? क्या बालक छोड़, पुत्र छोड़, औरंगजेब की तरह उसका दूसरा रूप भी हो सकता है क्या, जिसने शाहजहां को कैद कर लिया था ?’’
‘‘ओह संध्या। मैं कहां कह रहा हूं कि शैल औरंगजेब के रूप में आ रहा है। लेकिन....लेकिन...।’’
‘‘लेकिन क्या ? मन का गुब्बार खोलो देवेन्द्र।’’
‘‘शायद मुझे राज्य का उप मुख्यमंत्री होने का रुतबा दिखाकर शर्मिन्दा करने के ख्याल से तो नहीं आ रहा है ? बस यही मैं सोच रहा हूं।’’
‘‘देवेन्द्र! क्यों ऐसा सोचते हो तुम? हमारा बालक हमारा मान, हमारी प्रतिष्ठा, हमारी इज्जत बढ़ाने आ रहा है अथवा हमारा अपमान करने, हमें शर्मिन्दा करने देवेन्द्र?’’ और संध्या रानी की आंखों से टप-टप दो बून्द आंसू चू पड़े थे। अपने पुत्र शैल के बारे में उसके पिता के मनोभाव को जानकर उनका दिल रो उठा था।
‘‘नहीं संध्या नहीं। मेरा कोई इरादा नहीं था तुम्हारा दिल दुखाने का। वह तो बस शैल के जिद्दी और अक्खड़ स्वभाव को देखकर अनुमान भर लगा रहा था।’’ देवेन्द्रनाथ झट उसके आंसू पोछने लगे थे।
‘‘नहीं देवेन्द्र। मैं देख रही हूं। इधर तुम शैल के प्रति क्रूर होते जा रहे हो। उसका नाम सुन तुम्हारा मुंह विकृत हो जाता है।’’
‘‘नहीं संध्या, बिल्कुल नहीं। तुम यह क्या कह रही हो? शैल से मुझे भी उतना ही प्यार है जितना तुम्हें है। बस जरा उसके अक्खड़पन से मन भारी रहता है।’’
बाकी रात उन दोनों ने इसी तरह आपस में वार्तालाप करके बिता दी थी। सुबह होते-होते यह बात पूरे शहर और इलाके में फैल गई थी कि कल शैल जी आ रहे हैं। पौ फटते ही प्रशासन के लोग तथा खुफिया पुलिस वाले दौड़े-दौड़े उनके घर आए। हर तरफ से घर का जायजा लिया। घर की सुरक्षा का भार प्रशासन ने उठा लिया। मेटल डिटेक्टर आए। सब कुछ जांच की गयी। मंत्री जी घर पर कहां बैठेंगे, कहा सोएंगे, कहां खाएंगे से लेकर किन-किन से मिलेंगे इत्यादि सभी का ब्योरा लिया जाने लगा था। प्रशासन और सुरक्षा तंत्र वाले पूरे मुस्तैद हो चुके थे।
उधर छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा वाले अलग ताना-बाना बुन रहे थे। शैल के नागरिक अभिनंदन की तैयारी वे करने लगे। व्यापारी वर्ग, उद्योगपति प्रशासन से मिलकर अलग समय की मांग करने लगे कि मंत्रीजी से मिलकर वे अपनी समस्याओं को उनके सामने रखेंगे, ताकि आगामी बजट बनाते वक्त उनपर पर ध्यान रखा जाए। रिश्ते-नातेदारों और बंधु-बांधवों की तो भीड़ ही लगने लगी थी। हर कोई शैल से मिलने को उत्सुक था।
इसी तरह वह पूरा दिन गहमागहमी में बीता। छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा वाले दिन भर माइक से शैल के नागरिक अभिनंदन किए जाने का प्रचार करते हुए लोगों को शरीक होने का आग्रह करते रहे।
समय बीतता गया। वह दिन बीता और वह रात भी बीती। डॉ देवेन्द्र नाथ भारती को लगने लगा कि कल तक उनकी विद्वता की तूती बोलती थी। निर्विवाद रूप से वह शहर के एक गणमान्य स्कॉलर थे। लेकिन आज हर एक की जुबान पर शैल का नाम है। शैल के मुकाबले आज वह एकदम बौने बन गए हैं। यह देख वह मन ही मन सोचने और डरने भी लगे कि शैल पता नहीं, उनके साथ किस तरह पेश आएगा। एक पुत्र के रूप में अथवा राज्य के उपमुख्यमंत्री के रूप में ? चरणस्पर्ण तो शायद अब नहीं करेगा। भले वह मां का चरण स्पर्श कर लेगा, लेकिन मेरा शायद नहीं। वह मुझसे नाराज जो चल रहा है। इसी तरह के विचारों के ऊहापोह में डूबे वह गंभीर चित्त से सब कुछ देख रहे थे। बीच-बीच में उनकी पत्नी संध्या रानी टोक भी देती, ‘‘कुछ गंभीर से लग रहे हो देवेन्द्र।’’
‘‘उफ् संध्या, तुम्हें भ्रम हो रहा है। मैं गंभीर कहां हूं। हां तुम्हारी तरह खुशी में उछल कूद तो मैं नहीं कर पाऊंगा। वैसे मैं बिल्कुल सामान्य हूं।’’ डॉ देवेन्द्रनाथ ने कहा।
अंत में वह समय भी आ गया। सारा घर दुल्हन के समान सजा हुआ था। डॉ देवेन्द्रनाथ अपने अध्ययन कक्ष में सदा की भांति गंभीर से बैठे हुए थे। संध्या रानी के हर्ष का पारावार नहीं था। उसे लग रहा था कि काश, उसका बचपन लौट आता और वह खुशी से किलककर नाचने लगती। उसका लाल आज राज्य के उपमुख्यमंत्री के रूप में आ रहा है। यदा-कदा वह अपने पति के अध्ययन कक्ष की ओर बढ़ जाती।
‘‘तुम देवेन्द्र, यहीं बैठे हुए हो। बाहर आकर अपने बेटे का स्वागत नहीं करोगे क्या ?’’
‘‘उफ् संध्या। अरे वह कोई चुपचाप तो नहीं आ पहुंचेगा। लोगों का, सुरक्षा बलों का, अफसरों का, जनता का एक हुजूम साथ चलकर आएगा। भारी कोलाहल होगा। छात्र युवा संघर्ष मोर्चा वाले तो नारे लगाकर आसमान गूंजा देंगे। फिर मुझे अध्ययन कक्ष से बाहर निकलते कौन सी देर लगेगी? क्या मुझे नौजवानों जैसी उछलकूद मचाने कहती हो ?’’
‘‘अच्छा ठीक है। लेकिन तुम तब झट निकल आना देवेन्द्र। अपना सालों से रुठा बालक आ रहा है, प्लीज देवेन्द्र।’’ संध्या रानी ने उससे आरजू भरी मिन्नत की थी।
वह सोचने लगी कि जब रामचन्द्र जी बनवास से वापस लौटने वाले थे, तब उनकी मां कौशल्या का दिल क्या इसी तरह उछल रहा होगा, जिस तरह आज मैं खुशी से पागल हो चुकी हूं।
वह इसी तरह सोच रही थी कि दूर से नारों का गगनभेदी स्वर सुनाई पड़ने लगा। पुलिस के सायरन की आवाज के साथ कारों का काफिला भी आता दिखाई पड़ने लगा था। यह देख संध्या रानी भूल गई कि उसने मन ही मन तय कर रखा था कि शैल के आने की आहट पाकर ही वह देवेन्द्र नाथ को अपने साथ खींचकर बाहर ले आएगी। कारों का वह काफिला और वे सारे ताम-झाम देखकर तो उन्हें लगा जैसे उनका लाल शैल शादी कर अपनी नवव्याहता एवं बारात के साथ वापस लौट रहा हो और आते ही जिसका परिछन करना है। ऐसे में भला देवेन्द्रनाथ का ख्याल उसे क्या रहता ?
उधर देवेन्द्रनाथ ने जब शोर सुना ‘‘शैल भैया-जिन्दाबाद-जिन्दाबाद-राज्य का नेता कैसा हो-शैल भैया जैसा हो-शैल भैया की जय’’ तो पुलक और संशय के बीच वह किंकर्तव्यविमूढ़ से हो गए। चाहकर भी वह कुर्सी से नहीं उठ पाए थे। वहीं बैठे-बैठे सब जायजा लेने लगे थे।
फिर तो पलक झपकते वह हुजूम उनके दरवाजे पर आ लगा था। ब्लैक कमांडो से घिरा शैल उतरा। सीधे धड़धड़ाता मां के पास पहुंचा और झट उनके चरणों में अपना सिर रख दिया था।
भावविह्वल मां ने झट उसे बांहों से पकड़ कर कुछ इस तरह उठा लिया था, जिस तरह कभी शिशु शैल को वह बांहों में उठा लेती थी। फिर उसकी पेशानी को चूमना शुरू किया।
‘‘मां डैड कहां हैं?’’ शैल भी भावविह्वल हो चुका था। थरथराती सी आवाज उसके गले से निकली थी।
‘‘अरे,वह नहीं निकले ? ठहरो मैं उन्हें पकड़कर बाहर लाती हूं।’’ कह कर संध्या रानी भीतर जाने को उद्यत हुई।
‘‘नहीं मां। उन्हें बाहर नहीं लाओ। मैं उनके पास जाऊंगा। वह डैड हैं। मैं अपने डैड को अच्छी तरह जानता हूं। उनकी मर्यादा, उनकी प्रतिष्ठा पर रंच मात्र भी आंच नहीं आने दूंगा।’’ कहता हुआ शैल साथ के कमांडों को वहीं रोकता भीतर धड़धड़ाता चला गया।
वह जानता था कि उसके पिता कहां होंगे।। वह अपने पिता के अध्ययन कक्ष की ओर बढ़ा। कुछ लोगों ने साथ लगना चाहा, परन्तु सब को रोक दिया गया। केवल उसके पीछे संध्या रानी आई थी।
‘‘डैड। यह लीजिए। यह रही मेरी डिग्री। हाथ में लेकर तो देखिए। राज्य के गजट का वह पन्ना है, जिसमें महामहिम राज्यपाल के दस्तखत से प्रकाशित हुआ है कि शैलेष कुमार शैल पिता डॉ देवेन्द्र नाथ भारती, माता डॉ संध्या रानी भारती राज्य के उप मुख्यमंत्री-सह-वित्त मंत्री हुए। यह मेरी डिग्री है डैड। राज्य के एक बड़े नेता श्री संतराम विद्रोही कहते हैं कि राज्य का विधायक अथवा देश का सांसद होने का फतवा किसी भी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रदत्त स्नातक की डिग्री से बढ़कर है। उसी तरह राज्य अथवा केन्द्र में कोई मंत्री होना मास्टर की डिग्री से बढ़कर है तथा किसी छोटे या बड़े दल का सर्वेसर्वा सहित राज्य अथवा केन्द्र में कोई वरिष्ठ मंत्री होना डॉक्टरेट की डिग्री से बढ़कर है। डैड इस गजट के अनुसार मैं राज्य का उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री हूं और अपने दल छात्र युवा संघर्ष मोर्चा का सर्वेसर्वा हूं। इस तरह संतराम जी के शब्दों में डॉक्टरेट की डिग्री के समकक्ष डिग्री हासिल कर चुका हूं। परन्तु ये संतरामजी के शब्द हैं। आप जैसे स्कॉलर क्या इस डिग्री को मानेंगे? अथवा मैंने फिर कोई धृष्टता आप के साथ कर दी है ?’’ पिता के चरणों में पड़ा अश्रुपूरित नयनों से पिता को देखता, उन्हें गजट का पन्ना थमाता शैल कह रहा था।
तभी हठात अपने स्वभाव के विपरीत डॉ देवेन्द्रनाथ भारती ने शैल को बांहों से पकड़कर उठा लिया और अपने कलेजे से लगा लिया था।
‘‘नहीं शैल। तुम्हारी डिग्री बिल्कुल मान्य है। बेटे, तुम अपनी डिग्री के बारे में जरा भी संकोच नहीं करो। अरे तेरे पिता और तेरे बड़े भाई ने तो सिर्फ अर्थशास्त्र के डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है, लेकिन तुम तो आज राज्य के अर्थशास्त्र और वित्त के शिखर पर हो। माना कि सेक्रेटरी बजट बनाते हैं, राज्य चलाते हैं, परन्तु दिशा-निर्देश तो मंत्री का ही रहता है बेटे। निःसंकोच तुम्हारी डिग्री मेरे और राजकुमार की डिग्री से बढ़ कर है।’’ कलेजे में शैल को चिपकाते हुए, उसके हाथ से गजट का पन्ना लिए देवेन्द्रनाथ कह रहे थे।
पिता-पुत्र दोनों की आंखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी। मन के वे संशय, वे कलुष मानों बहकर एक साथ बाहर निकल रहे थे। डॉ संध्या रानी का तो हाल ही दूसरा था। उनका एक हाथ शैल पर तो दूसरा हाथ पति देवेन्द्रनाथ पर था, जबकि नयन लगाातार बरस रहे थे।
कई मिनटों तक यही स्थिति बनी रही। बाद में वे सचेत हुए और तीनों एक साथ बाहर निकले।
बाहर नाते-रिश्तेदारों की फौज खड़ी थी। शैल सभी के साथ सामान्य रूप से मिला। एक हल्का-सा जलपान का ही केवल प्रोग्राम था वहां। शैल ने सबके साथ जलपान किया। इसके तुरंत बाद ही उसके आप्त सचिव ने उसके कान में कुछ कहा कि शैल हठात हाथ जोड़कर सभी से बोल पड़ा, ‘‘महाशयगण। क्षमा करेंगे आप लोग। मुझे अब एक दूसरे प्रोग्राम में जाना है। अफसरों के साथ मीटिंग है। उसके बाद प्रेस वालों को समय दिया गया है। इतना कहकर शैल चलने को उद्यत हुआ।
कमांडो अंगरक्षकों ने झट उसे अपने घेरे में ले लिया। फिर देखते-देखते सायरन बजाती पहले पुलिस गाड़ी आगे बढ़ी, फिर एक-एक कर कारों का काफिला डाक बंगले की ओर चल पड़ा था, जहां अफसर लोग जमा हो चुके थे।
देवेन्द्रनाथ चुपचाप देख रहे थे। उनका वह समय का लापरवाह शैल, आज समय का कितना पाबंद हो गया है। आप्त सचिव ने जैसे ही उसके कान में कुछ कहा कि झट घड़ी देख वह चल पड़ा था।
वैसे देवेन्द्रनाथ के सहकर्मीगण, मित्र, परिचित जन वगैरह रात्रिभोज में आमंत्रित थे। शैल के साथ सबका भोजन होना था। संध्या रानी की परिचित महिलाएं, सखी-सहेलियां, सहकर्मीगण वगैरह भी आमंत्रित थी। लेकिन संध्या रानी के पास लगातार बधाइयां आ रही थी। उनके मोबाइल को बजने से फुर्सत मिल ही नहीं रही थी। एक से बात कर मोबाइल ऑफ किया कि झट दूसरे का कॉल आ जाता था।
‘‘हल्लो। संध्या दीदी। अजी मैं लक्ष्मी हूं-लक्ष्मी! ख्याल आया। सालों एक साथ हॉस्टल में रही हूं।’’
‘‘हां‘-हां...लक्ष्मी, अच्छी तरह याद है मुझे सब कुछ। कहो अपना हाल कहो।’’
‘‘सबसे पहले मेरी ओर से बधाई तो लो। शैल बेटे ने तुम्हारा नाम एकदम रोशन कर दिया है।’’
‘‘अरे तो शैल तो तुम्हारा भी बेटा ही हुआ न ?’’
‘‘मैं कहां कह रही हूं कि शैल मेरा कोई नहीं ? वैसे मेरी छोटी बेटी श्रेया बहुत उत्सुक थी शैल से मिलने के लिए और कह रही थी चलने के लिए। परन्तु इधर मेरी कमर और जोड़ों में काफी दर्द रहता है, इसी से नहीं जा सकी। मजबूरन फोन से ही बधाई दे रही हूं।’’
‘‘कोई बात नहीं। तुम्हें और तुम्हारी श्रेया को भी बहुत-बहुत धन्यवाद।’’ इतना कहकर संध्या रानी ने सम्पर्क काट दिया। तभी मोबाइल फिर बजने लगा।
संध्या रानी अच्छी तरह इन बधाइयों का मतलब जानती थी। किसी की बेटी तो किसी के भाई की बेटी अथवा बहन या बहन की बेटी पीजी करके बैठी थी अथवा डॉक्टर की उपाधि के लिए शोध कर रही थी। असल में उसका परिचय कराना रहता था।
‘‘अरे देखो न री संध्या। मेरी रश्मि इतिहास में एमए करके मुगलकालीन भारत पर शोध कर रही है। अब उसके लिए वर ढूंढना एक मुख्य कार्य हमलोगों का रह गया है।’’ संध्या रानी की एक अंतरंग सखी सुधा रानी उससे कह रही थी।
दरअसल सुधा यह सीधे नहीं कह रही थी कि उसकी नजर अब शैल पर है। इसी तरह उसकी अन्य सखी-सहेलियां और परिचिताएं सबकी नजरें उसके शैल पर ही थी। आज उसके शैल का रॉयल स्टेटस है। वह राज्य का उप मुख्यमंत्री है। वित्त मंत्री भी है। नौजवान है। प्रभावशाली व्यंिक्तत्व का मालिक है। कसरती बदन है। फिर भला कौन युवती अथवा उसके माता-पिता अपनी कन्या का सम्बन्ध उससे जोड़ने के लिए लालायित नहीं रहते ?
‘‘संध्या रानी। अब अपने बेटे के लिए एक अदद कोई बहू भी पसंद करके ले आओ। वरना तुम्हारे मोबाइल का बजना कभी खत्म नहीं होगा।’’ तभी देवेन्द्रनाथ ने कहा था।
‘‘क्यों, तुम तो शैल के पिता हो। तुम इसके लिए प्रयास क्यों नहीं करते हो ?’’
‘‘बिना प्रयास के ही लड़कियों की लाइन लग गई है। बस उनमें से किसी को पसंद करो। शैल की सहमति लो और झट उसे ब्याह लाओ...’’
‘‘तुम क्यों नहीं यह काम करते हो ?’’
‘‘इस पुनीत कार्य को करने की पूरी जिम्मेवारी मैंने तुम्हारे कंधों पर डाल रखी है।’’ देवेन्द्रनाथ ने हंस कर कहा था।
तभी संध्या रानी का मोबाइल फिर बजने लगा था।
दिन इसी तरह बीता। संध्या से ही उसके यहां लोगों का जुटान होने लगा। देवेन्द्र नाथ के सहकर्मीगण, मित्र तथा परिचितगण, संध्या रानी की सहकर्मिणी एवं परिचिताएं, सखी-सहेलियां, बंधु-बांधव, हित-नातेदार सभी आते जा रहे थे। नागरिक अभिनंदन समारोह के बाद शैल सीधे घर चला आया था।
देवेन्द्रनाथ ने तब देखा कि उसका वह उच्छृंखल शैल कितना नम्र हो चुका था। उसके अंतर में रंच मात्र भी राज्य का उपमुख्यमंत्री होने का अहं नहीं था। शैल उनके सहकर्मियों, दोस्तों एवं परिचितों के सामने हाथ जोड़ उन्हें चाचा कहकर इस तरह अभिवादन कर रहा था, मानों वह एकदम अकिंचन हो। उसके इस बर्ताव पर देवेन्द्रनाथ का सीना गर्व से फूल रहा था। संध्या रानी का हाल भी यही था। शैल उनकी सखी-सहेलियों को सहकर्मिणियों को मौसी या चाची कहकर नम्रतापूर्वक अभिवादन कर रहा था। बंधु बांधवों, हित-नातेदारों के साथ भी उसका यही नम्र व्यवहार था।
इसी तरह सौहार्दपूर्ण वातावरण में शैल के साथ सबका सहभोज हुआ। लोग एक-एक कर मिलते हुए अपनी बातें कहते अब विदा लेने लगे थे। इस तरह लोगों के विदा होते होते रात आधी से अधिक बीत गई थी।
‘‘बेटे आराम करोगे तो। सुबह का क्या प्रोग्राम है ?’’ तभी संध्या रानी ने उससे पूछा था।
‘‘हां मां, अब आराम ही करूंगा। सुबह चाय के बाद पुनः राजधानी लौट जाना है। कैबिनेट की बैठक है।’’ शैल ने तब मां से कहा था।
‘‘मतलब एक भी दिन अपनी मां को नहीं दोगे ?’’
‘‘मां मजबूरी है। फिर कभी चेष्टा करूंगा। वैसे मां तुम ही क्यों न वहां चली आती हो ?’’
‘‘आऊंगी बेटे। अवश्य आऊंगी। लेकिन उसके पहले मैं चाहती हूं अपने लिए एक बहू वहां ले आऊँ।’’
‘‘मां, तुम मां हो। तुम्हारा यह अधिकार है। खासकर हमारी भारतीय परंपरा रीति-रिवाज के अनुसार। तुम्हें यह करने से कौन रोक सकता है ?’’
‘‘यह सुनकर बहुत खुशी हुई। अब यह जानना चाहूंगी कि मेरे बेटे का किसी से कोई लगाव है क्या ? मेरे बेटे ने किसी लड़की से कोई वादा किया है क्या ?
‘‘मां डिग्री हासिल करने के लक्ष्य का पीछा करते हुए तेरे बेटे ने ऐसा कोई रोग नहीं पाल रखा है। न तो मेरा किसी लड़की से इस बाबत कोई लगाव है, और न मैंने किसी से कोई वादा ही किया है।’’
‘‘फिर भी मैं तुम्हारी पसंद-नापसंद के बारे में जानना चाहूंगी।’’
‘‘इसके लिए मेरी मां, जो कोई साधारण महिला न होकर डॉक्टरेट की उपाधि धारिणी है, बिल्कुल सक्षम है। उनकी पसंद ही मेरी पसंद है। उनकी नापसंदगी मुझे भी नापसंद है। अब सब कुछ समझ गई होंगी मां। अतः अब शुभरात्रि कह मुझे आराम करने दो।’’
‘‘ओके बेटे। जाओ आराम करो। शुभ रात्रि।’’ संध्या रानी ने कहा।
इसके बाद वे सोने चले गए।
‘‘संध्या रानी, बेटे को टटोलने पर क्या मिला ?’’ तभी बिछावन पर लेटते देवेन्द्र नाथ ने पूछा था।
‘‘मुझे तो लगता था कि शैल के साथ सुरेखा, मधुमिता या रजनी सरीखी कोई चिपक गई होगी। लेकिन शायद समय का एवं विज्ञान का प्रभाव ही है कि लड़के तो क्या, लड़कियां भी आजकल सब कुछ करके भूल जाती हैं। उसका कोई लेखा-जोखा नहीं रखती हैं।’’
‘‘अबकी बार तुम ठीक समझी संध्या। आज की लड़कियां वह संध्या नहीं है कि मात्र एक बार छूने के लिए देवेन्द्र को अपने साथ फेरे लेने के लिए मजबूर कर देगी।’’
‘‘क्यों इसका मलाल तुम्हें रह गया है क्या ?’’
‘‘मलाल ? कैसा मलाल संध्या ? मैं तो तब के और अब के समय का फर्क और उसके साथ लोगों की मानसिकता में आए बदलाव के बारे में कह रहा था।’’ देवेन्द्र नाथ ने सफाई दी और चादर तान ली थी।
सुबह चाय-पान के दौरान फिर उनमें वार्ता होने लगी थी।
‘‘अपने बड़े भाई राजकुमार से मिले हो क्या बेटे ?’’ संध्या रानी ने शैल से पूछ लिया।
‘‘मिल तो अवश्य लिया हूं मां, बल्कि उनका चरण स्पर्श भी कर चुका हूं। शपथ ग्रहण के बाद मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा हुआ था और मुझे वित्त विभाग मिला था। दूसरे दिन वित्त विभाग के सभी अफसरों के साथ औपचारिक परिचय होना था। राजकुमार भैया वित्त विभाग के सेक्रेटरी हैं। उनसे मिलते ही मैं सहम गया था मां। मां सच कहता हूं तब एक अन्य कमरे में उन्हें बुलाकर उनका चरण स्पर्श कर लिया था।
‘‘शैल, इस सचिवालय में मैं तुम्हारा बड़ा भाई नहीं बल्कि तुम्हारे विभाग का सेक्रेटरी हूं। तू विभाग का मंत्री है और मैं वित्त विभाग का सेक्रेटरी। मैं तेरा मातहत हूं। तेरे दिशा-निर्देश का पालन करना मेरा कर्त्तव्य है। अतः हमें यहां उसी तरह रहना एवं व्यवहार करना चाहिए। राज भैया ने कहा था और मुझे लाजवाब कर दिया था।’’ शैल ने कहा।
‘‘राज ने ठीक कहा शैल। तुम उसके प्रिंसिपल हुए और वह तेरा मातहत...’’
‘‘आप भी क्या कहते हैं डैड। राज भैया आपके ही समान अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान, डॉक्टरेट की उपाधि ले चुके हैं और कहां मैं अर्थशास्त्र में स्नातक भी नहीं। लेकिन....लेकिन... मैंने चीफ मिनिस्टर से कह रखा है। राज भैया को मेरे विभाग से हटाकर चीफ सेक्रेटरी बना दिया जाएगा और चीफ सेक्रेटरी जो भी अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि ले चुके हैं, बदलकर मेरे विभाग, वित्त विभाग के सेक्रेटरी होंगे।’’
‘‘आश्चर्य बेटे। अभी तुम कल ही कह चुके हो कि तुम भी डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर चुके हो ‘‘डॉक्टर ऑफ पोलिटिक्स’’ की। हमने भी तुम्हारी डिग्री को मान लिया। सचमुच स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़कर हर कोई स्नातक, मास्टर या डॉक्टर की डिग्री हासिल कर सकता है, परन्तु विधायक, मंत्री अथवा किसी दल का सर्वेसर्वा बनना हर किसी के वश की बात नहीं है शैल। तुम सचमुच डॉक्टर ऑफ पोलिटिक्स की डिग्री हासिल कर चुके हो।’’ डॉ देवेन्द्रनाथ ने उन्हें समझाया था।
‘‘डैड, वह तो है। लेकिन आप लोगों की और मेरी डिग्री में एक बहुत बड़ा फर्क है।’’
‘‘फर्क ? क्या फर्क है बेटे ?’’
‘‘डैड, आपलोगों की डिग्री स्थायी है, पूर्ण स्थायी, जबकि मेरी डिग्री अस्थायी है एकदम अस्थायी।’’
‘‘हूंऽऽऽ। वह तो है बेटे।’’ डॉ देवेन्द्रनाथ ने एक लम्बी हुंकारी भर कर कहा था।
इसके बाद देवेन्द्रनाथ एकदम गुमसुम से, विचारों में डूबे, गंभीर होे वहां से उठकर सीधे अपने अध्ययन कक्ष में चले गए थे। इधर शैल के वापस होने की तैयारी हो रही थी। सुरक्षा वाले सब मुस्तैद हो गए थे। कमांडो अंगरक्षक द्वार पर खड़े शैल के निकलने का इंतजार कर रहे थे।
शैल ने अंत में मां का चरण-स्पर्श किया और पिता को खोजने लगा।
‘‘मां डैड ?’’
‘‘ओह! अरे वह अपने अध्ययन कक्ष में होंगे। मैं बुला लाती हूं।’’
‘‘नहीं मां। मैं स्वयं उनके पास जाऊंगा।’’ कहकर शैल अध्ययन कक्ष की ओर बढ़ा। साथ में संध्या रानी भी गई।
‘‘अजी तुम फिर यहां चले आए ?’’ संध्या रानी ने शिकायती लहजे में कहा था।
‘‘हां संध्या। मैं सोचने लगा था, विचार करने लगा था कि शैल अपनी इस अस्थायी डिग्री को स्थायी बना सकता भी है क्या ? इसी से यहां चला आया।’’ देवेन्द्रनाथ ने कहा।
‘‘तो तुम्हें कोई तरीका सूझा क्या ?’’
‘‘हां संध्या। एक तरीका तो सूझ ही पड़ा है।’’
‘‘वह क्या डैड?’’ अति उत्सुकता से शैल ने पूछ लिया था।
‘‘वह बेटे कि जिस तरह निःस्वार्थ भाव एवं लगन से देश की सेवा कर महात्मा गांधी ने और निःस्वार्थ भाव तथा लगन से मानवता की सेवा कर मदर टेरेसा ने अपनी-अपनी इसी तरह की अस्थायी डिग्री को सदा सर्वदा के लिए स्थायी बना लिया है। उसी तरह बेटे यदि तुम भी निःस्वार्थ भाव से देश की, समाज की और मानवता की सेवा करो तो मेरा अनुमान ही नहीं, बल्कि पूरा विश्वास है कि तुम भी अपनी इस अस्थायी डिग्री को सदा सर्वदा के लिए स्थायी बना लोगे।’’ देवेन्द्रनाथ एक ही सांस में कह गए थे।
शैल तब अपने पिता को ताकता रह गया था। अंत में वह पिता का चरण-स्पर्श कर वापस चला, पर दो ही कदम चल कर ठमक गया।
‘‘डैड। शायद आपने ठीक कहा। बिल्कुल ठीक कहा। आप का यह शैल आज फिर आप से प्रतिज्ञा करके जाता है कि यह अकिंचन अपनी इस अस्थायी डिग्री को स्थायी बनाने का हरसंभव प्रयास करेगा।’’ ठमक कर शैल ने कहा और झटके से आगे बढ़ गया।
‘‘ओह, देवेन्द्र। तुमने फिर शैल को प्रतिज्ञा की एक और घुट्टी पिला दी। रोको उसे। प्रतिज्ञा को वापस...’’
‘‘नहीं संध्या रानी नहीं। उसे जाने दो। एक बार प्रतिज्ञा करके गया तो कुधातु से सोना बनकर आया और इस बार शायद कुंदन बनकर आएगा, कुंदन।’’ डॉ देवेन्द्र भारती ने बीच में ही टोक कर कहा था।
संध्या रानी इस पर अपने पति को ताकती रह गई थी कि तभी पुलिस के सायरन बज उठे और अपने काफिले के साथ शैल वापस चल पड़ा था।
समाप्त

लेखक का परिचय

नाम : बसंत शर्मा
जन्म : 17 मई 1935
पता : भोरन्डीहा, पोस्ट: बुढ़ियाडीह, जिला: गिरिडीह
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पूर्व साहित्यिक कृतियां
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1962 से 1970 के दशक में अनेक कहानियां कलकत्ता से प्रकाशित ‘गल्प भारती’ एवं यूपी से प्रकाशित ‘गांव घर’ पत्रिकाओं में प्रकाशित। 1962 के सन्मार्ग दैनिक समाचार पत्र, कलकत्ता के दीपावली विशेषांक में ‘धन की देवी’ कहानी प्रथम आयी थी।
* 1990 से 2000 के दशक में अनेकानेक कविताएं पटना से प्रकाशित ‘जागो बहन’ त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित।
* दैनिक जागरण में अनेक गजल प्रकाशित
* झारखंड राज्य के गठन पर गीतों का एक कैसेट ‘झारखंड एक फूल’ जिसके सभी गीतों की रचना बसंत शर्मा ने की तथा विमोचन झारखंड के तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री चंद्रमोहन प्रसाद ने किया।

बसंत शर्मा के लिखित उपन्यास
नई डिग्रियां : राजनैतिक प्रदूषण पर
वर्चस्व : पुरुष के अहं सह न्यायपालिका की स्वच्छता पर
प्रश्न चिह्न : उग्रवाद की समस्या पर
पलायन : विस्थापन की त्रासदी पर
अति का अंत: आधुनिक राजनैतिक धूर्त्तता पर
इकाई : विधवा विवाह पर
भय का भूत : नारी जागरण पर
नई पौध : नारी के सामाजिक क्रांति पर
मधुवा : एक स्वतंत्रता सेनानी की कथा
प्रौढ़ाकर्षण : प्रौढ़ वय के सात्विक प्रेम पर
अंतरधारा : नारी मानसिकता पर
टूटते मिथ : टूटती परंपराओं पर
विकृति : आधुनिकता के दिखावे पर
मौत की मांद: अवैध रूप से कोयला उत्खनन कर जीवीकोपार्जन पर
समय का चक्र: ग्राम पंचायत चुनाव पर
पूर्वा : राजनीति में नारियों के प्रवेश पर

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