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नई डिग्रियां (भाग-1)

शैलेश कुमार शैल उर्फ शैलजी की नजरों के सामने रह रह कर वह नजारा नाच उठता था। बाहर उनके समर्थक, कार्यकर्तागण और खासकर चापलूसगण तथा चमचे उनकी जय जयकार कर रहे थे। सरकार के विश्वास मत हासिल करने पर जश्न मना रहे थे। ‘‘ शैल भैया-जिन्दाबाद - शैल भैया की जय, राज्य का नेता कैसा हो- शैल भैया जैसा हो’’ के नारों के बीच नर्तकी का मधुर कंठ स्वर, वाद्य स्वरों के साथ मिल कर वातावरण को मधुमय बना रहा था। नर्तकी गा रही थी -
‘‘ नजर लागी राजा, तोरे बंगले पर।
जो मैं होती राजा कारी बदरिया
बरस रहती राजा तोरे बंगले पर
नजर लागी राजा, तोरे बंगले पर-’’
रात आधी बीत चुकी थी। शैलजी को भारी थकावट महसूस हो रही थी। कई रातों से वह ठीक से सो नहीं पाये थे। मुश्किल से घंटे-आधा घंटे तक झपकी लगी होती थी कि उनका मोबाइल बजने लगता था। फिर तो झट उसे ऑन कर वह कान में लगा लेते थे और बातचीत करने लगते थे।
उनके दल के बारह उम्मीदवारों ने राज्य की विधानसभा के चुनाव में दंगल जीता था। दल का संयोजक, संचालक, मुख्य प्रबंधक, अध्यक्ष और सुप्रीमो वही थे। इसीलिये सर्वप्रथम उनके सामने सवाल पेश था कि सरकार के गठन में उनके दल की भूमिका क्या होगी? क्या वे सरकार की ओर होंगे या विपक्ष में बैठेंगे? सबसे पहले इस विषय पर ही अपने साथ निर्वाचित सदस्यों एवं दल के अन्य पदाधिकारियों के साथ बैठ कर वह गहन विचार-विमर्श करतेे रहते थे। राज्य में दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल थे। परन्तु दोनों में से किसी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था।
संख्या का कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि बिना उसके दल के सहयोग के किसी भी दल की सरकार का गठन नहीं हो रहा था। ऐसे में उसके दल के विधायकों का महत्व बहुत बढ़ गया था। एक दल, जिसका नेतृत्व महेंद्र किशोर कर रहे थे और जिसकी सरकार केंद्र में थी, उसे दस के विधायकों की कमी पड़ रही थी, तो दूसरा दल, जिसका नेतृत्व श्रीधर स्वामी करते थे, उनको बीस विधायकों की कमी पड़ रही थी। यों तो निर्दलीय भी आठ जीते थे तथा वामपंथी सात। परंतु वाम पंथी दोनों प्रमुख दलों को पूंजीवादी मानते थे। इसीलिये उनका समर्थन अथवा सहयोग किसी दल को मिलने का सवाल ही नहीं था। रहे निर्दलीय विधायक, तो वे ऊंची कीमत पर किसी भी दल के हाथ बिकने को तैयार थे। इस तरह सरकार के गठन की चाभी मुख्य रूप से शैल और उसके दल के हाथ में आ चुकी थी।
खैर काफी विचार-विमर्श के बाद शैल ने महेंद्र किशोर के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात तय की तो, श्रीधर स्वामी के गुर्गे उसके दल और महेंद्र किशोर के दल के कुछ विधायकों को तोड़ने की कोशिश करने लगे थे। ऐसे में शैल के सामने अपने दल के विधायकों को एकजुट रखने की समस्या खड़ी हो गई थी। खैर शैल ने अपने विधायकों को टूटने नहीं दिया।
स्रकार के गठन की शर्तों में शैल ने महेंद्र किशोर को दबा कर तीन मंत्री पद, एक विधान सभा अध्यक्ष और एक बोर्ड अध्यक्ष अपने दल के लिये हासिल कर लिया था। अब सवाल उठ खड़ा हुआ कि बारह विधायकों में से किन-किन तीन विधायकों को मंत्री पद और एक को विधानसभा अध्यक्ष बनाया जाय तथा किसे बोर्ड अध्यक्ष बनाया जाय। दो दिन तक बातचीत होती रही। अंत में सर्वसम्मति से तय हुआ कि मंत्री पद शैल, रजनी मेहता तथा अनन्त रविदास को एवं विधानसभा अध्यक्ष का पद प्रेमचंद मिश्र तथा बोर्ड अध्यक्ष अब्दुल रहमान को दिया जायेगा। इसके अलावा छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा से जो दो सांसद पहले चुने गये हैं, उनमें से एक श्रीमती राजश्री शर्मा को केंद्र सरकार में राज्य मंत्री का पद भी दिया जायेगा। शैल ने इसका वादा भी महेंद्र किशोर की पार्टी से करा लिया था।
इसके बाद शपथ ग्रहण हुआ। तत्पश्चात मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारा का सवाल उठा। थोड़ी खिच खिच भी हुई। अंत में शैल को, जिसने उप मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की थी, उसे वित्त विभाग, रजनी मेहता को राजस्व विभाग और अनन्त रविदास को ग्रामीण विकास विभाग मिला। मुख्यमंत्री की सलाह पर राजभवन द्वारा इसकी अधिसूचना जारी कर दी गई।
इतना हो जाने के बाद भी न शैल को, और न अन्य विधायकों को चैन था। अटकलें लगाई जाने लगी थी कि सदन में नवगठित सरकार विश्वासमत हासिल ही नहीं कर पाएगी। खास कर मीडिया वाले तरह-तरह के भ्रामक समाचार फैला रहे थे। लेकिन सदन में भी सरकार ने आज विश्वासमत हासिल कर लिया था। इसीलिये आज ही जीत का असली जश्न मनाया जा रहा था।
यों तो शैल अपने सहयोगियों के साथ आधी रात तक जश्न में शरीक थे। इसके बाद एक-एक कर उनके सभी सहयोगी आराम करने चले गये थे। उन्हें भी अब थोड़ा निश्चिन्त होने के कारण थकावट महसूस होने लगी थी। इसीलिये आराम करने वह भी अपने शयन कक्ष में आ गए थे। कपड़े बदल वह सोने के लिये बिछावन पर लेट भी गए थे, पर नींद जैसे उनकी आंखों में आते-आते एकदम भाग खड़ी हुई थी। नींद की जगह अब उनकी आंखों के सामने रह-रह कर वह नजारा नाचने लगा था। अपने पिता डा देवेन्द्र नाथ भारती की वे हिकारत भरी नजरें नाच रही थीं। पिता के मुख से निकले वे शब्द कानों में गूंज रहे थे।
‘‘ एक मेरा बेटा, तेरा बड़ा भाई राजकुमार है। उसने मेरा सर गर्व से सदा ऊंचा रखा। परीक्षाओं में सदा प्रथम आया। पहले स्नातक की, उसके बाद मास्टर की, फिर डॉक्टरेट की डिग्री भी हासिल कर ली। हाला आई.ए.एस प्रीलीमीनरी टेस्ट में सफल हुआ और फाइनल टेस्ट में भी वह अवश्य सफल होगा। ऐसा भरोसा है। उसी तरह ओरल एवं अन्य टेस्ट भी पास कर एक आई.ए.एस अफसर बनेगा। परन्तु तुम? तुमने क्या किया.? तुम्हारे स्नातक की परीक्षा का रिजल्ट मेरे हाथों में है। बोलो तुमने उसमें क्या किया है?‘‘ हिकारत भरी नजरों से उसे देखते हुए उसके पिता ने उनसे पूछा था।
‘‘ सॉरी डैड, मैं परीक्षा के समय जरा डिस्टर्ब हो गया था। इसीलिये ठीक से नहीं लिख सका, खैर अगले साल मैं अवश्य पास कर जाऊंगा।’’ उसने तब सर झुकाये हुए कहा था।
‘‘ लो... लो संध्या रानी। लो तुम भी सुन लो अपने लाड़ले बेटे की बातें। जनाब परीक्षा में फेल कर गये। वह भी यूनिवर्सिटी के एक विभागाध्यक्ष पिता एवं डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त माता के पुत्र होकर। परन्तु इनके चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं है। कहते हैं कि अगले साल अवश्य पास कर लेंगे। छिः जरा भी संकोच नहीं आई इनको ऐसा कहते ? संध्या रानी। तुम्हारे लाड़-प्यार ने ही इस जनाब को शुरू से बिगाड़ रखा है, वर्ना मैं इनकी वह खबर लेता कि मत पूछो...’’
‘‘ शैल पर तुम्हें बड़बड़ाने की आदत सी पड़ गई है क्या? अब जो हो गया, सो तो हो चुका। इस साल इसे ठेस लगी हैै तो अगले साल संभल जायेगा। क्यों इतनी हाय-तौबा मचा रहे हो? शैल भी आखिर हमारा ही बेटा है।’’
डॉ देवेंद्रनाथ की झिड़कियां सुन तब उसकी मां डॉ संध्या रानी ने उसका हौसला बनाये रखने के लिये तुनक कर कहा था।
‘‘ तुम... तुम संध्या रानी, कहती हो कि यह हमारा बेटा है? राजकुमार हमारा बेटा है, यह मुझे सहर्ष स्वीकार है। उसने एक से एक डिग्रियां हासिल कर मुझे दिखाई। परन्तु यह शैल? सच कहो तो मुझे अब संदेह होने लगा है कि यह मेरा खून है भी या नहीं, अथवा मैं केवल नाम का इसका पिता हूं ...’’
‘‘ होल्ड योर टंग डैड। ( जुबान बंद कीजिये पिताजी) ’’
हठात बिफर पड़ा था तब वह। परोक्ष रूप से पिता द्वारा मां को दी गई उस मोटी गाली को वह बर्दाश्त नहीं कर सका था।
‘‘ बी रेस्ट एस्पोर्ड डैड। ( पिता जी एकदम आश्वासित रहें) यह शैल अब हाथ में कोई डिग्री लेकर ही इस घर में कदम रखेगा, वर्ना भले ही कहीं मर-खप जायेगा, फिर भी इस घर में कदम नहीं रखेगा।’’ तमतमाते हुए तब उसने कहा था और पैर पटकते हुए निकलने लगा था।
‘‘ नहीं बेटे, नहीं। मां को तो अब मोटी गाली सुना ही चुके हो। अब कहां जाओगे? तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। यहीं रह कर लगन लगा कर पढ़ो और अगले साल अच्छे नम्बरों से पास करो। ‘‘ मां ने तब उसे रोकने की चेष्टा की थी।
‘‘ जाने दो संध्यारानी। उसे जाने दो। जमाने के थपेड़े उसे उसकी औकात बता देंगे।’’
‘‘ तुम चुप भी रहोगे ? क्यों आसमान सिर पर उठा रहे हो?’’ उसकी मां ने तब उसके पिता को झिड़क दिया था।
‘‘ ओ.के.। फिर मैं कुछ नहीं बोलूंगा।’’ कह कर उसके पिता ने एक अत्यन्त ही हिकारत भरी नजर उस पर डाली थी और अपना मुंह फेर लिया था।
उनके पिता डॉ देवेन्द्र नाथ भारती एक जाने-माने विद्वान थे। अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर चुके थे। उस वक्त वह यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक्स विभाग के विभागाध्यक्ष थे। उनकी विद्वता का लोहा प्रायः सभी मानते थे।
उनकी मां डॉ संध्यारानी भी इतिहास में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर चुकी थी और उस वक्त वीमेन्स डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर थी।
बड़ा भाई राजकुमार भी अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर तथा आइ.ए.एस. के प्रीलीमीनरी टेस्ट में सफल होकर फाइनल टेस्ट की तैयारी कर रहा था।
उनसे बड़ी, किन्तु राजकुमार से छोटी एकमात्र बहन मीना भी एक नामी मेडिकल कॉलेज की छात्रा थी।
कहने का तात्पर्य कि उनका सारा परिवार शिक्षित था। सब उच्च शिक्षित थे अथवा उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर थे। परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी वह पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाता था। उसका प्रिय शगल था राजनीति, नेतागिरी, मारपीट, दादागिरी, धींगा-मुश्ती। स्कूल जीवन से ही उसने छात्रों के बीच अपना गैंग बनाना शुरू कर दिया था। संयोजन की विधा, संयोजन की शक्ति उसे प्रकृति ने मुक्त हस्त से दान में दी थी। अतः झट वह अपना गैंग बना लेता था। फिर तो एक गैंग की दूसरे गैंग के साथ मारपीट आये दिन होना एक तरह से अनिवार्य ही था। आखिर अलग-अलग गैंग छात्रों के बनते ही किसलिये हैं? छात्रों को कौन मजूरी, बोनस अथवा महंगाई भत्ता के लिये आन्दोलन करना होता है? अधिक से अधिक हुआ तो सिनेमा हालों में सिनेमा के टिकट में छात्रों को पचास प्रतिशत छूट देने के लिये धरना-प्रदर्शन, बस। बाकी समय तो एक गैंग का दूसरे गैंग के साथ धींगा-मुश्ती में ही समय बीतता था। शैल का गैंग इसमें नामी था।
इसी माहौल में उसने बोर्ड की परीक्षा दी थी। भला तब किस इनवेजीलेटर में इतना दम था कि उसे नकल करने से रोक सकता था अथवा किस परीक्षक में इतना दम था कि उसका नम्बर काट लेता। उसने शानदार ढंग से बोर्ड की परीक्षा पास की थी।
‘‘ लो तुम बराबर शैल की हेठी करते रहते हो। देख लो, शैल ने फर्स्ट डीवीजन से बोर्ड की परीक्षा पास की। मालूम है तुम्हें ? शैल को डिसटिंक्शन मार्क मिला है। विश्वास न हो तो इंटरनेट से मंगाया गया मार्कशीट देख लो। ‘‘ संध्यारानी ने तब गर्व से अपने पति देवेन्द्र नाथ से कहा था।
‘‘ मालूम है संध्यारानी। तेरा लाड़ला पढ़ने में अब कितना तेज हो गया है, वह मालूम है। वैसे कभी उसके मेरिट को टेस्ट करके तुमने देखा भी है क्या ?’’
‘‘ समझ गई। शैल से तुम बराबर खुनस खाये रहते हो। उसके प्रति तुम्हारे मन में पूर्व से ही दुराग्रह बसा है। इसलिये उसे तुम बराबर उसी चश्मे से देखते हो।’’
‘‘ लो बाबा, मैने मान लिया कि तेरा शैल डिस्टिंक्शन मार्क से पास हुआ है। बस हो गया न ?‘‘
‘‘ मेरा शैल ? क्यों तुम्हारा शैल नहीं है क्या ?’’
‘‘ मैने कब कहा कि मेरा शैल नहीं है? बस इतना ही तो कहा कि वह तुम्हारा लाड़ला है जबकि मेरा केवल पुत्र है। बस इसी पर तो तुमने अनुमान लगा लिया कि उसके प्रति मेरे मन में दुराग्रह है।’’
‘‘ ओह तुम पिता हो उसके। केवल एक शुष्क, हृदयहीन पिता हो।’’ एक गहरा निःश्वास लेकर संध्यारानी ने तब कहा था।
‘‘ और तुम, उसकी मां, केवल मां हो। अभिभाविका नहीं। इसी से लगता है, उस कविवर महोदय ने ठीक लिखा है,’’ बेटा पिशाच बन ले मां का कलेजा काट निकाल-फिर भी उस कटे कलेजे से निकलेगा खुश रहो लाल।’’ बिल्कुल उसी तरह, शैल चाहे जो भी करे, तुम्हारी नजरों में वह सदा तेरा लाड़ला है।’’
इस पर मुंह बिचका कर उनकी मां संध्यारानी दूर हट गई थी।
शैल तब ओट में छिप कर मां और पिताजी का वार्तालाप सुन रहा था। वैसे वह सोच रहा था कि उसके पिता का अनुमान कितना सटीक है। आज तक उसके पिता ने एक बार भी उसकी पढ़ाई को टेस्ट नहीं लिया है, लेकिन कितना सही उनका तर्क है। सचमुच अपनी दबंगता के कारण यदि उसे नकल करने की छूट नहीं मिली होती तो वह फर्स्ट डिवीजन क्या, थर्ड डिवीजन से भी पास नहीं हुआ होता। वह तो कहो, कि विद्यालय के सभी शिक्षक और परीक्षा के सभी इनवेजीलेटर उससे डरते थे। उन्होंने सोचा कि यह उद्यंड, उच्छृंखल गुंडा टाइप लड़का नकल करे या किताब का पन्ना फाड़ कर ही उत्तर पुस्तिका में चिपका दे, उनका क्या आता-जाता है? क्यों वे इस गुंडा टाइप लड़का से पंगा मोल लें? क्या ठिकाना इसका। घात लगा कर कब रास्ते में बेइज्जत कर दे। नकल करके पास करेगा तो खुद ही बकलोल रह जायेगा।
वैसे एक बार एक शिक्षक ने उनकी शिकायत उनके पिता से की थी।
‘‘ सर, आपका शैल पढ़ने में ध्यान न देकर धींगा-मुश्ती में अधिक ध्यान देता है।’’
‘‘ भई, आप उसके शिक्षक हैं। विद्यालय में, शैल मेरा बेटा नहीं, आपका छात्र है। छात्र एक बेतरतीब ढांचा भर होता है। माता-पिता उसे केवल जन्म देते और पालन पोषण करते हैं। उस बेतरतीब ढांचे को काट-छांट कर एक सुन्दर सी मूरत गढ़ना तो शिक्षक का काम है। अतः शैल को काट-छांट कर सुन्दर मूरत गढ़ना आप का काम है। उसे काटते-छांटते वक्त यह बिल्कुल नहीं सोचना है कि वह मेरा बेटा है। आशा है कि आप मेरे कहने का तात्पर्य समझ गये होंगे।’’ देवेन्द्र नाथ जी ने तब उन शिक्षक महोदय को कहा था।
यह बात किसी तरह शैल के कानों में पड़ गई थी। फिर क्या था? दूसरे दिन संध्या समय जब वह शिक्षक महोदय स्कूल से घर लौट रहे थे तो एक जगह सूने में दल-बल के साथ शैल ने उन्हें घेर लिया था।
‘‘ सर, आप नये-नये हैं। इसीलिये सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं। आप को जो कुछ भी कहना था, मुझसे कहते। मेरे पिता जी से शिकायत करने की क्या जरूरत थी? वैसे यदि हम इतने छात्र जा कर आप के माता-पिता से कहें कि सर का ध्यान हम छात्रों को पढ़ाने में न रह कर, नई-नई बहाल हुई क्रिश्चियन शिक्षिका मिस मेरी पर अधिक रहता है, तो फिर आप को कैसा लगेगा? खैर, आप की यह पहली हरकत है। इसीलिये चेतावनी भर दे देना काफी होगा। भविष्य में अपनी सेहत के लिये इस तरह की हरकतों से बाज आयेंगे।’’ शैल ने बस उस शिक्षक महोदय से कहा था।
उस वक्त तो उस शिक्षक को काटने से खून भी नहीं निकलता। खैर किसी तरह इज्जत बच गई थी। इसके बाद कोई भी शिक्षक उसकी कोई शिकायत नहीं करने लगा था और न उसकी बेजा हरकतों को ध्यान में लेने लगा था।
इसी माहौल में बोर्ड परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास कर वह कॉलेज पहुंचा था, जहां असली ट्रेनिंग उसने पायी थी। उसे कॉलेज के वे दिन याद आने लगे थे।

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