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नई डिग्रियां (भाग-5)

आखिर वही हुआ। मधुमिता से उपकृत शैल ने सुरेखा को बराबर डाइलेमा में रखा और अंतिम समय में स्पष्ट रूप से सत्ता पक्ष में जाने से इंकार कर दिया।
‘‘सॉरी सुरेखाजी। मैं उसी हालत में सत्ता पक्ष की ओर जा सकता हूं यदि आगामी विधानसभा चुनाव में वे मुझे इस विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का टिकट दें तब।’’ शैल ने कहा था।
सत्ता पक्ष में तो बराबर ही लोकसभा, विधानसभा, राज्य परिषद और विधान परिषद के टिकटों के लिए मारामारी रहती है, फिर नये रंगरूट शैल को टिकट देने का वादा कैसे किया जा सकता था। इसलिए वार्ता वहीं भंग हो गई।
इधर इस हां-ना के डाइलेमा में अजय सिंह और अवध सिन्हा राज्य के मुख्य विपक्षी दल, जिसके अध्यक्ष श्रीधर स्वामी थे, उससे जा मिले थे और उसकी ओर से चुनाव लड़ने की तैयारी कर चुके थे। जब शैल ने इन्कार कर दिया तो किसी तरह सत्ताधारी दलवालों ने पुनः अजय और अवध को अपने दल में ला मिलाया था।
फिर समय पर चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई। छात्र-छात्राओं ने अपने-अपने नामजदगी का पर्चा भरा और दाखिल किया। उनके पर्चो की जांच हुई तथा चुनाव चिन्ह उन्हें आवंटित किए गए। इसके बाद कशमकश शुरू हो गई थी।
सत्ताधारी दल की ओर से सभी वर्तमान पदाधिकारियों को यथावत पद के लिए टिकट दिया गया, जिसमें मुख्य रूप से अध्यक्ष पद के लिए अजय सिंह, उपाध्यक्ष पद के लिए अवध सिन्हा, सचिव पद के लिए सुरेखा सेठ, उपसचिव पद के लिए माधुरी वर्मा और कोषाध्यक्ष पद के लिए अनिल बर्णवाल को खड़ा किया गया। बमोकाबले इन सबके जन-जागरण पार्टी की ओर से अध्यक्ष पद के लिए शैलेश कुमार शैल, उपाध्यक्ष पद के लिए अनन्त रविदास, सचिव पद के लिए मधुमिता भारती, उपसचिव पद के लिए रजनी मेहता और कोषाध्यक्ष पद के लिए अब्दुल रहमान को खड़ा किया गया था।
अब चुनाव में बाजी मारने के लिए दोनों ओर से एक से एक युक्तियां अपनाई जाने लगी थीं। छात्र-छात्राओं की पढ़ाई-लिखाई तब कहां, बस दिन-दिन भर कनवासिंग और ग्रुपबाजी होने लगी थी। इस बीच पता चला कि अजय ग्रुप अपनी कमजोर स्थिति का आभास पाकर कुछ अनुचित कराना चाह रहा था। चूंकि उसकी पार्टी तब सत्तासीन थी, इसलिए अनुचित कराने की बहुत संभावनाएं थी। सुरेखा सेठ ने इसके लिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल भी रखा था। वह तो एक धन्ना सेठ की दुलारी बेटी भी थी। रोज सह भोज, पिकनिक, डिनर खाना और उसके साथ पीना भी चलता ही था। फिर तो डांस और उसके बाद कुछ कंडोम के पैकेट भी खुल जाते थे। अजय दल के खासकर सुरेखा के चाटुकार तो उसे यहां तक कह रहे थे कि वह जीत का जश्न अग्रिम ही मान ले।
इसके विपरीत शैल के दल में कुछ परेशानी महसूस की जा रही थी। अर्थाभाव यदि था तो नेकनामी उसकी भरपाई कर रही थी। शैल पूरे जोशो-खरोश में था। मधुमिता तो खुलेआम सुरेखा पर बरस पड़ती थी। क्योंकि सुरेखा उसके दल के छात्रों को एक तरह से जबरन डिनर पार्टी में ले जाती थी। अलावा मीडिया द्वारा प्रचार भी वह करा रही थी। इस तरह कशमकश की पूरी लड़ाई चलने लगी थी।
अंतिम दौर में शैल ने एक चालाकी की। उसने अपने पक्ष के छात्र-छात्राओं को अजय के पक्ष में तोड़-फोड़ मचाने के लिए भेजा। उन छात्र-छात्राओं ने कुछ ऐसा रंग दिखाया मानो शैल के पक्ष की आधे से अधिक छात्र-छात्राएं अजय गु्रप के पक्ष में मतदान करेंगी। इस तरह उन्हें डाइलेमा में रखा गया, वर्ना सत्ताधारी दल वाले येन-केन प्रकारेण शैल के पक्ष के छात्र-छात्राओं को मतदान करने से वंचित करने पर आमादा थे।
शैल की यह युक्ति काम कर गई। मतदान के दिन अजय पक्ष वालों ने किसी भी छात्र-छात्रा को मतदान करने से रोका नहीं। कारण था कि शैल के पक्ष के आधे से अधिक छात्र-छात्राएं तो अजय ग्रुप से परिचय पत्र, वोटर लिस्ट के क्रमांक वगैरह लेकर मतदान करने गए थे। दोपहर होते होते अजय ग्रुप एकदम गदगद हो उठा था।
‘‘अब बाकी छात्र-छात्राएं यदि हमें वोट नहीं भी दें तो भी हम जीत चुके हैं सुरेखा रानी।’’ अजय ने गदगद होकर कहा था।
‘‘फिर रात को पार्टी मेरी ओर से’’ सुरेखा ने भी उसी धुन में कहा।
‘‘अरे रात की बात रात होगी। अभी की बातें करो सुरेखा रानी। अभी हमने क्या कसूर किया है कि भूखों मारोगी?’’ इस पर अवध ने कहा।
‘‘तो फिर मंगाओ, जो-जो खाना हो, पीना हो।’’ सुरेखा भी पूरे उत्साह में थी।
‘‘यहां कहां मंगाया जाएगा। चलिए दो-चार करके हम होटल से खा आएं। चलो सुरेखा, पहले मुझे खिलाओ। महीने भर से भूखे-प्यासे जोत रही हो।’’ कहकर अजय ने सुरेखा का हाथ पकड़ा। वे चलने लगे तो अवध पीछे से जा मिला। फिर वे तीनों एक शानदार होटल में जा पहुंचे।
अजय, अवध और सुरेखा जब होटल से वापस आए, तब तक मतदान खत्म हो चुका था। 85 प्रतिशत छात्र-छात्राओं ने मतदान में हिस्सा लिया था।
अजय, अवध और सुरेखा के आते ही, उसके बाकी साथी सुरेखा से कई नम्बरी नोट ले मौज-मस्ती मनाने चले गए। शैल ग्रुप उस वक्त चुपचाप उन्हें देखता रहा था। वैसे मधुमिता का दिल यदा-कदा धड़क उठता था कि कहीं हमारे ग्रुप के छात्र और छात्राएं सचमुच उस तरफ तो मिल नहीं गई हैं? जले पर नमक छिड़कने के भाव में अजय ग्रुप की ओर से बैंड बाजे वाले भी आ गए थे।
खैर मतगणना शुरू हुई और आधा से कुछ अधिक होते-होते नजारा एकदम बदल गया था। बाजी एकदम पलट गई थी। शैल ग्रुप के सभी उम्मीदवार प्रथम वरीयता के लगभग तीन चौथाई मत प्राप्त कर चुके थे। आगे भी वे वोटों की गिनती में बढ़ते ही जा रहे थे।
अब अजय ग्रुप वालों को काटो तो खून नहीं। कहां वे थम्पिंग मेजोरिटी से जीतने की आशा में जश्न मना रहे थे और कहां उन्हें बुरी तरह हार का सामना करने के लिए तैयार रहने की घंटी बज चुकी थी। सुरेखा तो पैर पटकती अजय और अवध को मोटी गालियां देती घर चलने के लिए तैयार हो गई।
‘‘हरामजादे, कमीने, भिखमंगे कहीं के। कहा कि हम थम्पिंग मेजोरिटी से जीतने जा रहे हैं और इसी के नाम पर मेरे पैसों से दोपहर से ही गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। हरामजादों ने होटल में जीत की खुशियाली मुझसे अग्रिम ही ले ली और अब बुरी तरह हार का सामना करना पड़ेगा।’’
‘‘मैडम आप चली जाएंगी तो बैंड बजाने की बाकी मजूरी हमें कौन देगा?’’ तभी सुरेखा की राह रोककर बैंड मास्टर ने कहा था।
‘‘बैंड बजाने की मजूरी? किस खुशियाली में बैंड बजाओगे? क्या मोर्न धुन बजाते हुए मेरी लाश का जुलूस निकालोगे?’’
‘‘मैडम, हम पर खफा क्यों हो रही हैं ? इसमें हमारा कसूर क्या है? हम तो आप का पुर्जा पाकर ही दौड़े-दौड़े चले आए। यहां तक कि एक बारात पार्टी का सट्टा भी वापस कर दिया। भला कहां सेठ कर्मचंदजी की बेटी आप, और कहां वह बारात पार्टी? आपके सामने उसकी हस्ती ही क्या है? अब अगर आप हमें मजूरी नहीं देंगी तो मजबूरन हमें अपना बिल लेकर सेठजी के पास जाना पड़ेगा।’’ बैंड पार्टी के मास्टर ने तब कहा था।
‘‘ओह मास्टर, बोलो कितना देना है? बिल दो?’’ सुरेखा ने तब उसी तरह झुंझलाए स्वर में कहा था।
फिर तो बैंड मास्टर ने तत्काल अपना बिल सुरेखा को थमा दिया था। सुरेखा ने भी बिल देखकर तत्काल उसी तरह पर्स खोल उसे बिल अदा किया और बड़बड़ाती आगे बढ़ गई। रिजल्ट की औपचारिक घोषणा भी तभी होने लगी थी। शैैल गु्रप के सभी उम्मीदवार थम्पिंग मेजोरिटी से जीते थे।
‘‘ऐ दरबान! ड्राइवर से कहो गाड़ी गैरेज में लगा देगा।’’ अपने बंगलेनुमा आवास के गेट पर ही गाड़ी खड़ी कर उसने दरबान को अपना हुक्म सुनाया तथा दनदनाती अन्दर चली।
‘‘क्या हुआ बेबी, तुम्हारे चुनाव का?’’ अंदर घुसते ही उसके पिता कर्मचंद सेठ ने उससे पूछा था। वह कहीं बाहर जाने वाले थे। बाहर उनकी कार खड़ी थी तथा उनका ड्राइवर और उनकी नई-नई बहाल हुई नवयौवना पीए मिस रोजी खड़ी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी।
‘‘सॉरी डैड। मैं हार गई। हमारा ग्रुप भी हार गया। आपके उतने रुपए मैने बहा डाले।’’
‘‘ओह बेबी! रुपयों की कोई बात नहीं। वैसे यह सैड न्यूज अवश्य है। फिर भी क्या करोगी ? चुनाव में जीत-हार लगा ही रहता है। छोड़ो भी अब इसे। बी रिलेक्सड। अगली बार देखा जाएगा।’’ कहते हुए सेठ कर्मचंद जी बाहर चले गए।
इसके बाद वह अन्दर गई तो देखा उसकी मां भी तैयार हो रही थी। शायद क्लब जाने के लिए।
‘‘ह्वाट एबाउट योर इलेक्शन बेबी? (तुम्हारे चुनाव का क्या हुआ?)’’ उसकी मां ने उसे पूछा था।
‘‘मैं हार गई मम्म। मेरा ग्रुप ही हार गया।’’
‘‘ओह। मैं इसे जान रही थी। तभी मैंने कहा था न कि अब अजय और अवध का साथ छोड़ो बेबी। वे पुराने हो गए, घिस-पिट गए हैं। खासकर शैल ने जब से उन्हें रगेद-रगेद कर पीटा है, तब से ही उनका प्रभाव नहीं के बराबर रह गया है। उनकी जगह पर शैल का प्रभाव जम चुका है। मैंने उस दिन राजधानी समाचार चैनेल में उस नौजवान को देखा भी तो था। एकदम शेर के समान लगता है। भगवान ने क्या बॉडी दी है उसको। इसीलिए बोली थी कि बेबी अपना फ्रेंडशिप अब शैल से बढ़ाओ। उसे घर ले आओ। मुझसे मिलवाओ। फिर देखती कि उसे किस तरह पालतू जानवर की तरह मैं बना डालती। परन्तु तुमने मेरा कहना माना ही नहीं।’’ कुछ अफसोस जाहिर करती उसकी मां बोली थी।
यों सुरेखा को यह मालूम था कि उसके ब्वाय फ्रेंड्स में उससे अधिक उसकी मां दिलचस्पी रखती है। उसके ब्वाय फ्रेंड्स को वह डिनर कराने होटल ले जाती है और जब उसके पिता बाहर दौरे पर गए होते हैं तो वह उन्हें घर पर भी बुला लेती है। उसके ब्वाय फ्रेंड्स भी उसकी मां से बहुत खुश रहते थे। केवल खुश ही नहीं, बल्कि अनुगृहित और उपकृत भी रहते थे।
सच पूछा जाए तो उनके बीच यह खुला रहस्य था। इस रहस्य को न सिर्फ सुरेखा बल्कि उसके पिता सेठ कर्मचंद जी भी जानते थे। परन्तु इस बाबत उन्होंने कभी सेठानी को टोका तक नहीं था। टोकते भी क्या ? वह अपनी नवयौवना पीए को लेकर प्रायः दौरे पर रहते ही हैं। साल-छह महीने में पीए गर्ल भी बदल डालते हैं। इससे भी मन नहीं भरता तो हाई प्रोफाइल के कॉल गर्ल्स भी मंगाते रहते हैं। घर की जवान नौकरानियों की तो कोई गिनती ही नहीं की। परन्तु सेठानी ने कभी जरा सी भी आपत्ति प्रकट नहीं की थी। फिर भला सेठ जी उसे क्या टोकते ? उसे साल-छह महीने में आवासीय दरबानों को बदलने से क्या रोकते? आपस में सब खुला रहस्य था। मां-बेटी के बीच भी खुला रहस्य था।
‘‘मम्म, मैंने बड़ी चेष्टा की शैल को फ्रेंड बनाने की। महीनों उसकी खुशामद की। क्या-क्या नहीं ऑफर किया। परन्तु वह डिगा नहीं। पता नहीं मधुमिता ने उसपर कौन सा जादू चला रखा है कि वह टस से मस तक नहीं होता है।’’ सुरेखा कुछ हताश होती हुई बोली।
‘‘तुमने तरीके से उसे चारा नहीं डाला होगा। खैर जाने भी दो अब। जो हुआ सो हुआ। भविष्य में उसे फ्रेंड बनाने की चेष्टा करो। अब चिन्ता छोड़ो। बी रिलेक्सड। न हो तो थोड़ा ड्रिंक कर लो।’’ कहती उसकी मां भी बाहर चली गई।
इसके बाद हाथ-मुंह धो, कपड़े बदल वह ड्राइंग रूम में जा बैठी।
‘‘दीदी जी, कुछ खाने की लाऊं,’’ तभी नौकरानी ने उससे पूछा था।
‘‘खाने को ? नो-नो-नो। खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है। वैसे मेरे बेडरूम में ड्रिंक सजा दो।’’ सुरेखा ने कहा।
नौकरानी ने तब झट उसके बेड रूम के टेबुल पर भूने हुए काजू, तली हुई कुछ पकौड़ियां, सोडा वाटर, पैग वगैरह सजाकर उसे इसकी खबर दे दी।
खबर पा सुरेखा उठी। फ्रिज से अपना प्रिय पेय लिया और बेड रूम में जम गई। एक पैग...दो पैग...तीन पैग... नशा उसपर गहराता गया। तभी हठात उसने घंटी बजा दी।
‘‘कहिए दीदी जी ?’’ घंटी की आवाज सुनते ही नौकरानी दौड़ी-दौड़ी आई थी।
‘‘सुनो, वह जो नया दरबान बहाल हुआ है न एकदम मुस्टंडा नौजवान सा। क्या नाम है उसका? शायद राम जतन नाम है। उसे तुरंत बुला लाओ।’’
नौकरानी दोनों मां-बेटी की फितरत को जानती थी कि ड्रिंक के बाद उन्हें क्या चाहिए। अतः वह दौड़ी-दौड़ी रामजतन को बुला लाई।
‘‘दीदीजी, दरबान आ गया।’’
‘‘उसे अन्दर ले आओ।’’
‘‘ऐ दरबान सुनो। मेरा अंग-अंग टूट रहा है। तुम अच्छी तरह से मसाज कर मेरा अंग-अंग चटखा दो। क्यों सकोगे न अकेले चटखाने तुम ? अथवा अपने साथी उस दरबान को भी बुला लोगे?’’ दरबान के अन्दर आते ही सुरेखा ने उससे पूछा था।
‘‘जी...जी...छोटी मालकिन। आप इत्मीनान रहें। मैं अकेला ही आपके लिए काफी होऊंगा’’ दरबान कई रइसों की कोठियों में दरबानी कर चुका था। अतः वह भी खिलाड़ी ही था।
‘‘गुड। तो फिर लो, पकड़ो ये नोट। पहले जरा अपनी जीभ का कमाल तो दिखाओ।’’ कहती सुरेखा ने दरबान को अपनी ओर खींच लिया था।
नौकरानी के होठों पर एक विद्रूप भरी मुस्कान नाच उठी थी। मन ही मन वह बोल पड़ी थी, ’’हूंहः मां-बेटी दोनों ही विकृत यौना। प्राकृतिक से अधिक अप्राकृतिक ढंग से हवस पूर्ति के लिए आतुर। मुआ इसका बाप सेठ भी तो प्राकृतिक से अधिक अप्राकृतिक ढंग से हवस पूर्ति करता है। वह भी यौन विकृति का शिकार है। कई बार उसके फेरे में वह पड़ चुकी थी। दूसरे दिन उसका मन एकदम खराब रहता था। रह-रहकर उबकाई आती थी। चलने-फिरने में दर्द महसूस होता था। हाथ थकते थे सो अलग ही। मुआ न जाने क्या-क्या, कौन-कौन सी गोलियां खाकर घंटों तबाह करता था।
आगे वह सोचने लगी कि लोग यों तो कहते हैं कि मैथुन रत पशु के जोड़े और मनुष्य के जोड़े में कोई खास फर्क नहीं होता है। यौन तृप्ति के लिए दोनों जोड़े नीचे से नीचे स्तर तक उतर आते हैं। फिर भी एक फर्क तो रहता ही है। पशु जहां खुलेआम मैथुन रत हो जाते हैं, वहां मनुष्य एकांत एवं पर्दे में मैथुनरत होते हैं। परन्तु यह फर्क भी आजकल के हाई प्रोफाइल परिवारों में मिटता जा रहा है। नौकरानी की उपस्थिति से जरा भी झिझक सुरेखा में नहीं आई थी। नौकरानी के सामने ही उसने अपने बदन पर ढंपे एकमात्र वस्त्र गाउन को उतार फेंका था और दरबान का वस्त्र खींचना शुरू कर दिया था। वही थी कि झटपट वहां से बाहर निकल गई थी। ऑटोमेटिक दरवाजा स्वयं बंद हो गया था। उसके बाद सुरेखा की अश्लील बड़बड़ाहटें शुरू हो गई थी।
इधर सुरेखा जब इस तरह अपना गम गलत कर रही थी और अजय तथा अवध शराब पीकर अपने-अपने कमरे में धुत पड़े थे, तब शैल के दल के लोग बैंड-बाजे के साथ जीत का जश्न मनाते ‘‘सुन चम्पा, सुन तारा-कोई जीता-कोई हारा’’ की धुन पर सड़कों पर नाच रहे थे। इसका सीधा लाइव भी राजधानी समाचार चैनल से दिखाया जा रहा था। संध्या रानी भी अपने पति डॉ देवेन्द्र नाथ भारती के साथ लाइव (सीधा प्रसारण) को देख रही थी। कई लोगों की बधाइयां भी उन्हें मिल रही थी।
‘‘अपने शैल की इस लोकप्रियता को, इस सफलता को देखकर तुम्हें खुशी नहीं होती है क्या देवेन्द्र? देखो हमें कितनी बधाइयां मिल रही हैं।’’ डॉ संध्या रानी ने तब अत्यंत भावुक शब्दों में अपने पति डॉ देवेन्द्र नाथ से कहा था।
‘‘तुम क्या कहती हो संध्या रानी ? शैल मेरा भी बेटा है।’’ कहते-कहते भाव-विह्वल हो डॉ देवेन्द्र नाथ ने भी संध्या रानी को खींचकर गले से लगा लिया था। ठीक उसी तरह, जिस तरह सर्वप्रथम उसने अनब्याही संध्या रानी को खींचकर कलेजे से चिपका लिया था और जिसके बाद वह सब कुछ हो गया था, जो शादी के बाद सजे हुए सुहागकक्ष में उनके बीच होना चाहिए था।
‘‘देवेन्द्र, तुम सच कह रहे हो ?’’
‘‘तो क्या, तुम्हे मेरी नजरों में कुछ मक्कारी नजर आती है ?’’
‘‘मक्कारी तो नजर नहीं आती है परन्तु जब-जब तुम शैल को भला-बुरा कहने लगते हो न तब-तब मेरे दिल में बहुत चोट लगने लगती है।’’
‘‘इसलिए संध्या रानी कि तुम कुछ भी हो, शैल की मां हो और मैं पिता हूं। अपने बेटे को सही राह पर लाना एक पिता का कर्त्तव्य होता है। उसी कर्त्तव्य पालन के तहत मैं उसे झिड़कता अथवा भला-बुरा कहता हूं। लेकिन तुम चूंकि उसकी मां हो, इसीलिए उसकी चोट तुम्हारे दिल पर लग जाती है डार्लिंग। वैसे शैल की सफलता पर मुझे अपार सुख और उसी तरह उसकी विफलता पर अपार दुख होता है संध्या।’’ प्यार से संध्या रानी के गालों को थपकते हुए डॉ देवेन्द्र नाथ ने तब कहा था।
इस पर जैसे निहाल होकर संध्या रानी ने भी अपना मुखड़ा डॉ देवेन्द्र नाथ की चौड़ी छाती में छुपा लिया था।
‘‘अच्छा-अच्छा देखो न उधर ऐ संध्या। देखो वह लड़की कौन है? किस तरह शैल से लिपट जाने को आतुर लगती है ?’’
‘‘क्यों अभी भी तुम्हारी नजर लड़कियों पर चल ही जाती है क्या ? अरे वह अपने़ वाले शैल के साथ मस्ती में नाच रही है।’’
‘‘तो क्या वह लड़की तुम्हें पसंद है ? उसे पुत्रवधू बनाओगी क्या ?’’
‘‘क्यों तुम्हें वह लड़की पसंद नहीं है ?’’
‘‘अरे शैल की होने वाली पत्नी की पसंद-नापसंद का वीटो पावर तो मैंने तुम्हें दे रखा है।’’
‘‘ठीक है। तो फिर जब मेरे शैल को वह लड़की पसंद होगी तो मुझे भी पसंद होगी। रही बात उसे पुत्रवधू बनाने की, तो यदि अपने पिता की तरह मेरे बेटे शैल ने भी उस अनब्याही कन्या को छू दिया होगा और वह कन्या चाहेगी तो मैं अवश्य उसे पुत्रवधू बना लूंगी।
‘‘उफ संध्या रानी। तुम्हारे हाथ में वही एक तुरूप का पत्ता है, जिससे मुझे लाजवाब कर देती हो।’’ डॉ देवेन्द्र नाथ ने तब असहाय सा कहा था।
‘‘तब न मैं उस वक्त कह रही थी कि देवेन्द्र शादी के पहले यह सब ठीक नहीं। लेकिन तुमने अपनी कसम देकर मुझे चुप करा डाला था। याद है तब क्या कहा था तुमने, ‘‘संध्या तुम्हें मेरी कसम है, आज मत रोको मुझे वर्ना मैं जहर खा लूंगा।’’ कहती संध्या रानी हंस पड़ी थी।
‘‘लो तुम जीती, मैं हारा।’’ हारने के स्वर में देवेन्द्र नाथ ने तब कहा था। इस पर संध्या रानी पुनः हंस पड़ी थी।
इसके बाद शैल सचमुच हीरो बन गया था। उसके ओजस्वी भाषण को सुनने हजारों-हजार की भीड़ लग जाती थी। संतराम विद्रोही ने तब उसे अपनी पार्टी के फायदे के लिए एवं अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उसे अधिकतर उपयोग करना शुरू कर दिया। विभिन्न जन-समस्याओं को मुद्दा बना उन्होंने आंदोलन करना शुरू किया और मुख्य वक्ता के रूप में शैल का इस्तेमाल करना शुरू किया। शैल के भाषण में वह आकर्षण, वह जादू भी था कि नुक्कड़ सभाओं में भी झट हजारों की भीड़ जुट जाती थी। उनमें युवा वर्ग की उपस्थिति अधिक रहती थी। शैल की एक अपील पर युवा एवं युवतियों में उसके आंदोलन का वालेंटियर बनने की होड़ लग जाती थी। धीरे-धीरे शैल के सभी साथी यथा अनन्त रविदास, अब्दुल रहमान, मधुमिता एवं रजनी भी उसकी देखादेखी राजनीति के अखाड़े में कूद पड़ी थी। जहां युवकों का संगठन शैल तुरंत-फुरंत बना लेता था, वहीं युवतियों, छात्राओं, कामकाजी महिलाओं एवं नवगृहिणियों का संगठन रजनी मेहता चुटकी बजाते कर लेती थी। परन्तु रजनी के साथ एक ट्रेजेडी यह थी कि उसके कर्मों का, उसकी मेहनत का श्रेय उसे न मिलकर मधुमिता को मिल जाता था। इससे वह हतोत्साहित भी हो उठती थी, परन्तु शैल उसे ढाढ़स दिलाता, ‘‘रजनी तुम्हारी मेधा को, वक्तृत्व कला को, संगठन करने की क्षमता को मधुमिता न तो किसी तरह चुरा सकती है और न हड़प ही सकती है। अगर वह तुम्हारे श्रेय को हड़पती या चुराती है तो उसे ऐसा करने दो। स्वयं गोबर-गणेश रह जाएगी, जबकि तुम्हारी यह कला, यह क्षमता और मेधा दिनानुदिन बढ़ती तथा और भी चमकती जाएगी।’’
खैर, इन्हीं सब कारणों के चलते शैल तथा उसके कई संगी-साथी पढ़ने में काफी पिछड़ से गए थे। जब तक बात कॉलेज के प्रोफेसरों एवं प्रिंसिपल के वश में थी, तब तक तो शैल और उसके साथी बेरोक-टोक पास होते गए थे।
वैसे जब-जब शैल अथवा उसके संगी-साथी पढ़ने की अनिवार्यता को दर्शा कर आंदोलन में अधिक समय देने में असमर्थता जताते तो संतराम विद्रोही, खासकर शैल से कहते-
‘‘बरखुर्दार, यों तो अपने देश को आजाद हुए साठ साल से भी अधिक हो गए, परन्तु अब तक हमारे यहां शिक्षा की वही पद्धति चल रही है, जो अंग्रेजों के समय में लार्ड मेकाले चला गए हैं। हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और यूनिवर्सिटियां अधिकतर महज कलम घिसु क्लर्क ही पैदा करते हैं। उनका मुख्य प्रोडक्ट ही जैसे क्लर्क है। अंग्रेजी पढ़ने, लिखने और बोलने की महत्ता आज भी अपने देश में सर्वोपरि है। कोई छात्र या छात्रा यदि आज भी इंगलिश में ऑनर्स करती अथवा एम.ए. करती है तो वह समाज की नजरों में महत्वपूर्ण बन जाती है, जबकि अपनी मातृभाषा में ऑनर्स या एम.ए. करनेवाले छात्र-छात्राओं को उतना महत्व नहीं दिया जाता है। लोगों की यह मानसिकता स्पष्ट बताती है कि हम भले भौतिक रूप से आजाद हुए हों, परन्तु मानसिक रूप से अभी भी अंग्रेजो के गुलाम हैं। इस तरह से हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और यूनिवर्सिटियां सब लकीर की फकीर हैं और पुरानी लीक को ही पीट रही हैं।
परन्तु बरखुर्दार, मैं तो खुले आसमान के नीचे संसार रूपी इस विश्वविद्यालय में सभी नर-नारियों को प्रैक्टिकल रूप से राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्षनशास्त्र वगैरह की शिक्षा देने का हिमायती हूं और यथाशक्ति उसे कर भी रहा हूं। कबीर ने, रहीम ने, सूर ने, तुलसी ने किस विश्वविद्यालय में नीतिशास्त्र और साहित्य की शिक्षा ग्रहण की थी ? महान मुगल सम्राट अकबर ने कौन-से कॉलेज में राजनीति और समाजशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। इसी तरह अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं। साहित्य के क्षेत्र में तो और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिन्होंने मात्र साक्षर होने अथवा वह भी नहीं होने पर समाज को एक से एक कृतियां दी हैं। कबीर तो स्वयं कहते हैं ‘‘मपि कागद छुओ नहीं, कलम गहे नहीं हाथ-चारों युग का महातम कबीरा मुख ही जनाई बात।’’ यह बात भी तब नहीं थी कि पाठशालाएं या विद्यालय तब नहीं थे। गुरुकुल पाठशाला तो अनादि काल से थे। इसके अलावा नालंदा विश्वविद्यालय सरीखे विश्वविद्यालय अथवा विद्यालय तब भी उपलब्ध थे। यह दीगर बात थी कि ये महान हस्तियां तब कतिपय कारणों से उन विद्यालयों या गुरुकुलों में शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकी। एकलव्य तो जाति उपेक्षा के कारण भी किसी गुरुकुल या विद्यालय में शिक्षा ग्रहण नहीं कर सका था।
इसलिए बरखुर्दार, अपनी मातृभूमि की पुकार सुनो। आज भी हमारी मातृभूमि एक सामाजिक क्रांति के लिए हमें पुकार रही है। अतः विद्यालय से अधिक समाज में रहकर समाज और दुनिया से भी शिक्षा ग्रहण करो। सामाजिक डिग्रियां हासिल करो। इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपलोगों को पढ़ना-लिखना छोड़ देने कह रहा हूं। मैं तो केवल इतना कहता हूं कि पढ़ने-लिखने के साथ-साथ आंदोलन करने में भी सहयोग दीजिए ताकि आने वाले विधानसभा चुनाव में हमारी पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर सके तथा अगर अपने दल की सरकार न भी बना पाए, तब भी सत्ता में सहयोगी रहे। यह बात भी स्पष्ट सुन लीजिए, आपमें से हर किसी को विधानसभा के चुनाव में पार्टी की ओर से उम्मीदवारी का टिकट देने का मेरा विचार है। अतः आपलोग अपने-अपने क्षेत्र में अभी से ही अपना प्रचार शुरू कर दीजिए।’’
संतराम व्रिदोही के इस आश्वासन ने तब उनके बीच जादू सा काम किया। पढ़ने से अधिक वे राजनीति में समय देने लगे थे। ऐसे ही माहौल में स्नातक की परीक्षा हुई। शैल ने वहां अपना सिक्का चलाना चाहा जरूर, परन्तु परीक्षा का कंट्रोलर उससे कहीं अधिक कड़ा था। अतः न तो उसकी, अथवा उसके साथियों की कुछ चल सकी थी।
शैल इस तरह पूर्ण रूपेण आश्वस्त था कि वह परीक्षा में फेल करेगा। फेल करने की जगह यदि वह पास हो जाता तो वही उसके लिए आश्चर्यजनक बात होती। अतः वह परीक्षा के बाद चुपचाप घर चला आया। मां ने पूछा था, ‘‘शैल तुम्हारे पेपर कैसे गए?’’
‘‘मां अपने जानते तो मैं अच्छा लिखा हूं। बाकी तो परीक्षकगण ही जानेंगे।’’
‘‘उफ, बेटे, तुमने ठीक लिखा न ?
‘‘हाँ माँ मैं ठीक लिखा हूं।’’ कहकर शैल अन्यत्र चला गया था।
‘‘संध्या रानी तुम चिंतित क्यों हो ? तुम्हारा लाल बहुत बड़ा खिलाड़ी है। यद्यपि परीक्षा कंट्रोलर बहुत कड़ा था, फिर भी मुझे लगता है कि तुम्हारा लाल उसे भी चराने में सफल हो गया है। तभी उसके चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं है। वही बता रहा है कि चाहे भले ही कोई डिस्टिंक्शन न मिले, पर तुम्हारा लाल पास अवश्य हो जाएगा।’’ डॉ देवेन्द्र प्रसाद ने तब कहा था।
इसके विपरीत जब शैल का परीक्षाफल निकला, तो डॉ देवेंद्र नाथ भारती अपने क्रोध पर काबू नहीं पा सके थे और उन्होंने उसकी मां तक को एक मोटी-सी गाली दे डाली थी, जिस पर ही शैल ने, जो आज तक कभी उनसे तेज आवाज में बात भी नहीं करता था, कह उठा था, ‘‘होल्ड योर टंग डैड।’’
उसके बाद ही यह कहा था कि वह अब तभी घर आएगा, जब उसके हाथ में कोई डिग्री होगी। कहते हुए वह घर से निकलने लगा था।
बाद में उसकी मां संध्या रानी ने उसे रोकने की बड़ी चेष्टा की, परन्तु शैल तो मन में एक संकल्प लेकर रंगमंच पर कूद पड़ा था। वह रुका नहीं। सीधे संतराम विद्रोही के पास चल पड़ा था।

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