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माह की कविताएँ

दोहे-देवेन्द्र कुमार पाठक केimage

                                 
छोड़ गांव-घर चल पड़े चैतहरों के पांव;
जहाँ पेट पापी पले,वहां ठिकाना-ठाँव.  
 
चटख चांदनी चैतिया,दूध नहाया चाँद;
मन,मन-ही-मन तोड़ दे;मनमानी मरजाद.
  
टेसू हुए दिवालिये, मदिराये महुआर;
खलिहानों के सर टँगी कर्जे की तलवार.
 
मदरीले दृग खोलती, भोर-वधू निंदियार;
ललछौंही छवि सोहती, सेंदुर भरे लिलार.
 
व्यापारी जब कर चुके अमराई नीलाम;
आम पहुँच से दूर हैं,अब आमों के दाम.       
--
रिश्तों का ऋणभार उमर भर.
हम न पाये उतार उमर भर.
 
तुमसे क्या इकरार कर लिया;
पाया नहीं करार उमर भर.
 
उस संग़ दिल को पा लेने का;
टूटा न एतबार उमर भर.
 
एक तार क्या सुर से उतरा;
बेसुर बजा सितार उमर भर.
 
मर्यादा की देहरी 'महरूम':
हमने की न पार उमर भर.
 
      प्रेषक-devendrakpathakdp.dp@gmail.com
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विवेक सक्सेना


ग़ज़ल
 
दर्दे दिल अपनों से बाँटें
पर अपनों को कैसे छांटें
 
रही स्वार्थी नजर सदा ही,
कैसे खुलतीं मन की गांठें
 
जो आदर्श बने थे अपने
वे दूजों के तलवे चाटें
 
महंगाई की चली हवा तो
खड़ी हुई हैं सबकी खाटें
 
रिश्तों के जो बीच बनी है
आओ ऐसी खाई पाटें
 
डॉ विवेक सक्सेना,
नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
 
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पंकज शर्मा"तरुण"


स्वरचित -दोहे।
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कड़ी  मेहनत  जो  करें, मंजिल  मिले तुरन्त।
आये दिन सुख के सखा,होगा दुःख का अंत।।
बहा पसीना रोज तू, खुल  जायेंगे  भाग।
सोने के दिन चले गये, सुबह सवेरे जाग।।
गुल  मोहर मुस्का रहा,थर थर कांपे  ताप।
अमलतास की ख़ुशी से,मिटे सभी संताप।।
अंगारों  की  आग  में, कैसे  खिलते  फूल।
देते सीख हमें सभी, दुःख को जाओ भूल।।
करें  बड़ों  का मान तो , सदा मिले आशीष।
नाम जगत में हो बड़ा,  बनता  न्यायाधीश।।
काम  करें जिसके लिये,कर उनका सम्मान।
वफादार बन कर रहें, रख  लें इतना  ध्यान।।
यदि  कबीर  होते  अभी, क्या  होता अंजाम।
सोनू  पर  दस  लाख हैं, उन पर कोटि इनाम।।
सब धर्मों को सीख दी, किया गलत क्या काम।
सोनू  से  है  क्यों खफा , क्यों  आहत  इस्लाम।।
                        पंकज शर्मा"तरुण".
                         मोती महल,गायत्री नगर
                    पिपलिया मंडी,जिला मन्दसौर (म प्र)
                         पिन 458664
 
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सुनील संवेदी


पलक
...........
तुम -
वही हो न
जो, यूं तो सुलझे घोषित हुये।
परंतु-
जब-तब उलझे
तो, मात्र मेरे लिए।
पता नहीं
तुम ही थे अबूझ पहेली
या,
मैं ही नहीं संजो सका
वह व्याकरण ज्ञान।
तुमने चाहा तो था ही,
मुझे याद आता है।
परंतु-
मैं छप जो चुका था,
डरावना, असहज, अव्यावहारिक
कमजोर, अमित्र, असहयोगी।
जीवन सुलझे तो सुलझाऊं कुछ।
या शायद
तुम ही बहुत उलझे हो।
--
तुम लौट आओ...
..................
तुम्हें-
किस विधि खोजूं
कि टूट-टूट के जुड़ने, और
जुड़-जुड़ के टूटने के क्रम में
चिंदी-चिंदी भावनाओं की
एक एक कतरन
एकाएक
पूर्वरूपेण आकार लेने लगे।
तुम्हें-
किस विधि निहारूं
कि पलकों के रंगहीन परदों के पीछे
डुकी छिपी बैठीं
अंसुआई दीवारों के
बीच का खामोश अंधेरा
अपने तुड़े-मुड़े होंठ फड़फड़ाकर
एकाएक
सुबक ही उठे।
तुम्हें-
किस विधि सहेजूं
कि आयु के समस्त रस
आशाओं के समस्त अलंकार
स्मृतियों के समस्त भाव
हो जाएं सिमटकर एकाकार
एक भावुक व्याकरण की
दस्तक दर दस्तक से लगने लगे
एकाएक
जीवन, जीवन सा।
तुम्हें-
किस विधि कहूं, फिर से
कि, स्पर्श का एहसास
और, एहसास का स्पर्श
हृदय की निजी पूंजी होते हैं
नितांत निजी,
छीन लेना झपटकर थोड़े से कुछ को
घटा देना नहीं कहते।
तुम्हें-
किस विधि पुकारूं
कि, विस्मृति के चिरस्थाई
मौन उपहार के साथ
स्मृति की अथाह पीड़ा की
हरहराती लहरों पर सवार होकर
एकाएक
‘तुम लौट आओ।’
--.
बड़ी हो गई बिटिया
-----------------------
उन्हें-
पड़ोस की वह
छोटी सी बिटिया बहुत अच्छी लगती थी।
वह उसे-
बिटिया ही कहते थे
सुंदर, लाडली, मासूम बिटिया।
और बिटिया-
‘बिटियों’ के साथ ’बिटिया’ नहीं,
’बड़े’ के साथ ’बड़ा’ बन जाना चाहती थी।
बड़े सपने, बड़ी बातें, बड़ा सोचना,
बड़ा सुनना, बड़ा सुनाना, बड़ा देखना
बड़ा दिखना, बड़ी कहानी, बड़े गीत
बड़ा राजा, बड़ी रानी
हां... एक छोटी सी राजकुमारी बस्स...
’बड़े’ का तो मुंह ही
’बड़ा’ कर देती थी।
बड़े खड़े होते तो-
कमर के आस-पास के कद को
पंजों पर उचकाती,
देखो न, मैं बड़ी हो गई हूं।
और बड़े-
उसे, अपने शांत आलिंगन में समेटकर
बस्स, चूमते ही चले जाते।
या कि, तुम गोद में बैठी रहो,
न, मैं तो न बैठती
अब बड़ी हो गई हूॅ, देखो।
अपनी झालरदार फ्र्राक पकड़ती
और, झूमने लगती,
बड़े, एकटक निहारते रहते।
बिटिया कभी-कभी
छोटी सी बात भी कह देती,
आप, मेरे पापा से अच्छे हैं,
आप, मेरे पापा होते
मेरे पास रहते
मुझे प्यार करते।
कि, बड़े सकपका जाते
बड़ी-बड़ी बातें सिखाने लगते।
मम्मी कहती-
बिटिया, अधिक न जाया करो वहां।
कि, ऊं हू मम्मी
आप और पापा का घर आफिस
और मेरा!
मम्मी सकपका जाती।
एक रात-
एक अंधेरे कोने में दुबकी
सिसक रही थी,
उसकी झालरदार फ्राक,
और चड्डी, मुंह में ठुंसी
मना रही थी मातम
लाज न बचा पाने का।
बड़ी-बड़ी आंखें, बड़ी-बड़ी
बिटिया वाकई बड़ी हो गई।
और बड़े-
लापता हो गए थे।
- सुनील संवेदी
 
Suneelsamvedi@gmail.com
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सीताराम पटेल


 
दुनिया में बढ़ायें देश का मान
पैसा देगा तो बाप
नहीं देगा तो साँप
कैसा आया जमाना
बिना रूपया पागल
बहु करे घायल
बना दे दीवाना 
पैसा पकड़ना पाप
बेटा पर मरना श्राप
कपूत उड़ाये रूपया 
शौक मारकर सहेजा
तिल तिल संकेला भेजा
सबसे बड़ा रूपया
बेटा नहीं कमाये
बहु मौज उड़ाये
रोटी को बाप को तरसाये
बेटा के लिये बाप कमाये
पर उसे बाप न भाये
बाप का माल उड़ाये
बाप मरे तो मरे 
बेटा कुछ न करे
पीकर पड़ा रहे शराब
बाप पानी को तरसे
मां खाने को तरसे
बेटा बहु उड़ायें कबाब
पैसा का न होना फाँसी
पैसा का होना भी फाँसी
उड़ाना चाहे सब राशि
पैसा ही है मां बाप
समझे नवाब अपने आप
जायें काबा काशी
बाप मरता बेटा के लिये
मां मरती बेटा के लिये
बाप को मारे बेटा
कैसा आया है नवयुग
कहते हैं सब कलयुग 
है यह कलयुगी बेटा
बाप हो जाये वृद्ध 
बेटा बनना चाहे समृद्ध 
सोचे वो कब मरे
पत्नी भी पीटे
बहु भी उसको पीटे
बासी फूल कब झरे
बेटा को देख डराये
बाप थरथराये
बुड्ढा को कोई न भाये
पेंशन का माल उड़ाये
मुफ्त का माल खाये
गीत फिर भी न गाये
बाप होता बाप
उसे चेक न समझें आप
करें प्रेम व्यवहार 
तुम भी बनोगे बाप
तब समझेंगे आप
कैसा होता बाप का प्यार 
बेटा के लिये बनाये राह
न्यौछावर करे चाह
लुटाये अपना सारा प्यार 
मां बाप हैं जागृत देव
पूजा करें हम सदैव
लुटा दें अपना प्यार 
पूरा करो बाप का सपना
साथ अपना सपना
कहलाओ तुम सपूत
बुढ़ापे का बनो लाठी
बने हो उसके कद काठी 
प्यार देकर बनो सपूत
मां बाप का करें सम्मान 
होने न दें उनका अपमान
भारत का बढ़ायें शान
राष्ट्रभाषा का करें सम्मान 
मातृभाषा का करें सम्मान 
दुनिया में बढ़ायें देश का मान
तुम्हें बिठाकर अपना कंधा
ले जाता वह अपना धंधा
बिठाता है तुम्हें छांव
अपने लिये चुने काँटे
सुख सपना तुमको बाँटे
फूल बिछाये पांव 
फूल एक दिन झड़ेंगे
आखिरी तक लड़ेंगे 
जाना सबको मौत के पास
तो फिर कर ले प्यार 
बना अच्छा व्यवहार 
खुशियां पाओगे आसपास 
मत भेज वृद्धाश्रम 
उसके लिये कर श्रम
वरना हो जाओगे नाश
तेरे लिये बनाया घर
कमरा न देने पर डर
ईश्वर कर देगा सर्वनाश 
09-05-2015
सीताराम पटेल
7697110731
sitarampatel.reda@gmail. com
 
0000000000 

मंजुल भटनागर


राम एक शब्द नहीं एक युग है
राम एक सीढ़ी है
सत्ता पाने की
राम एक गणित है
वोटर को भरमानें की
राम उदास है आज .

राम का आयोजन
पुरजोर है
सर्प फन उठाने लगा है
एक और मर्दन
फिर उस पर राजनीति
राम का उदघोष

तुलसी के राम हों या बाल्मीकि  के
संशय  डसता है
सच झूठ को मानें या न मानें
यह मानें कि
राम रूप है कल्याण का
कितनी अहिल्या, विभीषण का
करना है उद्धार

सोचती हूँ क्या ?
फिर राम भरोसे रहूँ
प्रतीक्षा करूँ
राम राज्य के स्वप्न बुनूँ
क्या फिर लौटेंगे प्रभु राम ?
 
 
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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'


ग़ज़ल
जब कोई मुझको बनाता है म़जा आता है
बात  अपनी  वो  छुपाता है म़ज़ा आता है
हमने विश्वास किया शोख़ पे खुद से ज्यादा
अपनी चतुराई दिखाता है म़ज़ा आता है
चेहरा मासूम ना करता है हक़ीकत उसकी
जब भी वो ऩाज उठाता है म़ज़ा आता है
सहज  भोलापन  गहनें  सदा  रहे अपने,
चमक उनकी जो चुराता है म़ज़ा आता है
बाल खोपड़ी के जो सफेद हो गये सारे,
काले जब कोई बनाता है म़ज़ा आता है
पैसा भगवान नहीं व्यग्र मगर कम भी नहीं,
जाल अपना वो बिछाता है म़ज़ा आता है
                **********
           ग़ज़ल
जो करते थे बुराई उनकी चौराहों पर
वो आ ही गये  हैं देखिये  दौराहों पर
डगमगा रही हैं आज इमारतें ऊँची,
जो  खड़ी  थी  वर्षों से तिराहों पर
होने लगा है विरोध गलत कामों का,
लगने लगी बंदिश अब मनचाहों पर
पहनती हैं स्वयं पौशाकें झीनी-झीनी
दोष मँढ़ती है ये दुनियां जुलाहों पर
उसको चिन्ता है केवल इस बात की,
दिल भी आने लगा व्यग्र अनचाहों पर
             **********
             - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
           कर्मचारी कालोनी,गंगापुर सिटी,
           स.मा. (राज.)322201
        मोबा : 9549165579
मेल :  vishwambharvyagra@gmail.Com
0000000000

अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’


बोनसाई होते रिश्तों को ...........
क्यारियों में ज़िन्दगी की
मुस्कान की खलिहानें उगायें
दो पल भीड़ की मुंडेरों पर बैठ   
दोस्तों संग कहकहे  लगायें
“ बेहतर होगा सब ,अच्छे हैं सभी ” 
टूटते मन-राग को
इन्हीं तारों से सजाएं
पुचकारें अलसाई धूप को
चाँद को निहारें ,टकटकी लगाये
बिछा दें, कभी गर्म रेत पर
खिलखिलाते सागर की लहरें
सीपियाँ  बटोर
रेत के घरोंदे बनायें
बिना चीनी वाली चाय में
प्यार की मिठास घोल
ज्यादा नमक वाली सब्जियों को
नशीली आँखों का खारापन बोल 
ठंढी रोटियाँ ,थके हाथों की
मुस्काते हुए पी ,खा  जाएँ
“ तुम वजह हो इस बात की
गलतियाँ मेरी नहीं
समझा आज तक कभी ,
जो अब समझ जाओगे !
पास हूँ ,तो कोई कीमत नहीं
दूर चले जायेंगे , तब समझ पाओगे ! ”
अपनों से उलझते हुए यूँ
थाम लेना हथेलियों से
सरकती लकीरों की रेत
पकड़ते हुए कान खुद के
मुस्कुरा देना उन्हें देख
शिकायती लम्हों की
खुरदुरी ज़मीनों पर
मनुहार के पौधे उगायें 
यूँ ही लड़ते –झगड़ते अपनों से
सूखती हलक का पानी हो जायें
बेतरतीब पलों में भी
कभी –कभी
थोड़ा रूमानी हो जायें
आओ !  कुछ इस तरह
बोनसाई होते रिश्तों को,  वट वृक्ष बनायें |
--.
1-     शायद..................!
 
आओ ! कुछ पल यूँ भी गुजारे
किन्हीं कर्मरत खुरदुरे  हाथों  को
बाँध हथेलियों में अपनी
उसके कुछ दर्द भुला दें
ठंडे चूल्हे की सहमति साँसों में
सुलगा दें , थोड़ी जीवन-बयार
साँझ, थके -हारे लौटते
खाली झोले से बाप के
प्रश्न करते मासूम चेहरों को दुलरा,
लें थोड़ा निहार 
बचा लें जलने से ,टूटने ,गलने से
आँखों की भट्ठियों में सिंकती
बनती – बिगड़ती , रोटियों की तस्वीर
देखा जिन आँखों ने स्वप्न में
या सुन रक्खी किसी की जुबानी 
बचाते हुए सूखती हलक का पानी
सोचते हैं सिर्फ,
कुछ स्वादों की ताबीर
उबलते दूध में
चावल और थोड़ी - सी चीनी डालने से
शायद ............................................................
बन जाती है खीर |
 
 
2- मैं श्रम हूँ ...............!
 
मैं श्रम हूँ ,
अनवरत चलतीं  मेरे हाथों की रेखाएं
बदलने को अनगिनत
जड़ हो चुकी परिभाषाएं
सही अर्थों में गिराते हुए पसीने की धार
दिख जाता हूँ मुस्कुराता, हाल - बेहाल
कहीं गोदान का होरी , कहीं हजारीपाल (सिटी ऑफ़ जॉय फिल्म का एक किरदार )
टूटता नहीं जो प्रकृति के कोप से
घिघियाता नहीं जो सुखों के लोप से
तलाश लेता हूँ बुझी राखों से
चिंगारियों की खेप
जीवन क्रम हूँ
मैं श्रम हूँ
पूजता हर मन ,सृष्टि का कन- कन
समिधा -सा परमार्थ में जल जाता हूँ
कुचला ,छला ,तोड़ा, बिखेरा मन द्वार
फिर भी उठ जाता हूँ बार - बार
लिए संभावनाएं अपार
सम्पूर्ण जगत का उठाये भार
मत समझना  भ्रम हूँ
मैं श्रम हूँ |
 
 
 
3-     कुल्हड़ 
 
सोख लेता अतिरिक्त पानी
गढ़ने को चाय का स्वाद
सोंधी फुहार लिए
होंठों पर झूमता
कुम्हार की चाक बैठ
ज़िन्दगी -सा घूमता
हर थाप पर संवारता
अपना स्वरुप
पंक्तियों में सजा खूब , गंठियाता धूप 
अग्निशिखा में बन कुंदन  रूप
आओ ! किसी दिन ढाबे पर बैठ
दूर तक उड़ेली हरीतिमा को
आँखों से पियें
बादलों की रुई भरकर हाथों में ,
खेत निहारते माटी के लाल – सा
नंगे पाँवों धरती को छुएं 
आओ कभी कुल्हड़ में चाय पियें !
कुम्हार के श्रम को चूमते हुए
माटी की पावन सुगंध, जियें |
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डाक्टर चंद जैन “अंकुर “


unity एकता
मैं अकेला आसमां में तैरता था
अभिमान था सर पे चढ़ा जो बोलता था
जब कोई पीठ मेरी थपथपाता
मैं शहनशाह हूँ अकेला सोचता था
सफलता के गुब्बारों में मैं खड़ा था
एक दिन यूँ हवा निकली जो भरी थी
चारों खाने चित्त राह में मैं पड़ा था
अंदर से आवाज़ आई एक प्रेरणा थी
तू अकेला क्या भला इस जहाँ में
जन्म तेरा हुआ जब कोई और सोंचा
याद रख सफलता एकता से बनी है
तू बना सारे जहाँ की एकता से
एक उंगली क्या करेगा यार मेरे
जुड़ती है पाँचों उंगलिया तो आशीर्वाद बनता
शत्रुओं के सामने मुष्टि का प्रहार बनता
जुड़ते करोड़ों हाथ तो इन्कलाब बनता
जब हो करोड़ों साथ तो लौह का दीवार बनता
तानाशाहों के लिये ये ढाल बनती
हारता हरदम अकेला ही तू याद रखना
हम हो अकेले साथ तो जीत का इतिहास बनता
एकता ही मन्त्र है इस जहाँ में मीत का
एकता ही तन्त्र है इस जहाँ में जीत का
याद कर हम टुकड़ों में बांटे थे ओ जमाना
टूटती जब एकता तो बादशाह भी गुलाम बनता
जब एकता हो देश में तो आज़ाद हिन्दोस्तान बनता

 
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सतीश कुमार यदु


मेरी बिटिया ,
सबसे बढ़िया !
छोटी सी गुड़िया,
नेह की पुड़िया ;
प्यार की डलिया,
ज्ञान की खड़िया !
मेरी बिटिया ,
सबसे बढ़िया !
लाड़ की लड़िया,
स्नेह की मढ़िया;
प्रेम की कड़िया,
दुलार की छड़िया !
मेरी बिटिया ,
सबसे बढ़िया !
नन्ही सी चिड़िया,
गढ़ती घरघुंदिया ;
रचती निडिया ,
खनकाती चुड़िया!
मेरी बिटिया ,
सबसे बढ़िया !
कोई न बेड़िया,
हर छिन घड़िया ;
इनकी ठूड्ढ़ीया ,
बसती गड़िया !
मेरी बिटिया ,
सबसे बढ़िया !
                                                   
                                                    सतीश कुमार यदु
                                                  कवर्धा छ.ग. 9893178411
 
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आलोक  पाण्डेय


है तिमिर धरा पर मिट चुकी
आज भास्वर दिख रहे दिनमान ,
शस्य – श्यामला पुण्य धरा कर रही ;
वीरों तेरा जयगान !
शुभ मुहूर्त्त में,महादेव को,
सिंधु का अम्बु चढ़ा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
जग को जिसने दी सत्य प्यार
धरा पर शुचिता और संस्कार
सिखला रहा जगत् को धर्म उपकार ;
और भी उचित-अनुचित व्यवहार…
हीन पड़ी सुषुप्त जीवन के,
व्यथित व्यसन छुड़ा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
ऋषि दयानंद, भारद्वाज आदि का गौरव,
यश फैलाता सर्वत्र ;व्यपोहति दुःख रौरव,
कुसुमित, प्रफुल्लित सुमन सुख सौरभ
प्राणियों का क्लेश, सदा हरते भैरव
वेधित खंडित भारत का काँटा,हिय से त्वरित छुड़ा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
‘लक्ष्मीबाई’-‘ऊधम सिंह’ सदृश शौर्य अप्रतिम् ,
कड़क रही ‘मंगल पाण्डेय’- ‘बिस्मिल’ की बोली;
सुखदेव,राजगुरू,भगत सदृश असंख्य बलिदानी ,
नित- प्रति अरि वेध रहा,अद्य ‘चंद्रशेखर’ की गोली |
ऐसे त्यागी प्रबुद्ध अमर्त्य पुत्रों का,
नित- नित उत्साह बढ़ा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
नर्मदा नित भारत की भाग्य-गाथा को तोल रही
गोदावरी,कावेरी सदा ‘मधुरम्’; प्राणियों में घोल रही,
गंगा-यमुना-सरस्वती की,
अमृत-धारा संगम से डोल रही;
आक्रांत ‘सिंधु’ की पावन जल-धारा
अब कड़क होकर बोल रही|
ध्वस्त कर आतंक विभत्स, मंगल वेद-ध्वनि फैला लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
जिसने काफिर संज्ञा दे एक पवित्र जाती को,
असंख्य अनेक कहर बरसाया
विध्वंस किया प्राचीनतम् यशगाथा,
कर अति बलात् बालों-वृद्धों को,
अग्नि-आतंक में झुलसाया|
करूण पुकार अभी भी बहुत,
कैसे दुःख-दर्द भूला लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
बहुत कालखंड व्यतीत हुए
संस्कृतियाँ कितनी हुयी विघटित;
लाखों छुट गये अपनों से,
असंख्य पलायन से विभित व्यथित
हल्दीघाटी सा संगठित हो,शिवाजी सा शौर्य चढ़ा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
नदियों में आज जल ‘जल’ रहा ज्यों ?
वृक्षों से वन,वन से वन्यजीव हो लुप्त रहा क्यों ?
कणिकाएँ विस्फोटों की मिल घुल गयी रक्त संचार में;
क्षणिकाएँ रोगों की मिली हर छंद व्यवहार में
पर्यावरण को उन्नत कर,धरणी को स्वच्छ बना लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
विकास के हर तथ्य में विनाश कैसा हो रहा,
विध्वंस कर संस्कृति-प्रकृति को,हताश जन-जन हो रहा,
है दिख चुका बहुत दृश्य भयावह,कैसा नादान बन सो रहा,
जीवों को कर दी विलुप्त,जननी ‘गैया’ को भी काट रहा
प्रकृति की जयगान कर,पग अमर्त्य पथ को बढ़ा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
पावन होली अब बीत चुकी
नव-संवत्सर, शुरूआत हुयी
दे स्फूर्त्ति मरें भारत-‘आलोक’को
सम्मिलन की सच्ची यह बात हुयी
चैत्र-शुक्ल की प्रथम तिथि,
चिरभास्वर तेज फैला लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
शस्य-श्यामला धरती माता,
कर मंगलमय पुकार रही;
रसिकों का हो रस-सिक्त ह्रदय,
वीरों का शौर्य-श्रृंगार वही |
नव युगल डूबे रहें रस में,
एकला मौज मना लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
मंगल गाथा को गा लें हम…
वीरों नववर्ष मना लें हम…
अखंड भारत अमर रहे
वन्दे मातरम् !
जय हिन्द !
 
©
कवि  आलोक  पाण्डेय ( वाराणसी)
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रमेश शर्मा


दोहे रमेश के राम नवमी पर
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नवमी तिथि यह चैत की, सजा अयोध्या धाम !
जन्मे थे जहँ आज ही,... दशरथ घर श्री राम !!
 
राम राम रटते रहे, करें राम का जाप !
कट जायेंगे आपके , रोग कष्ट संताप !!
 
राम नाम की नाव पर, ज्यों ही हुआ सवार!
भव सागर से हो गया, त्यों ही बेड़ा पार !!
 
राम-नाम के नाम की, महिमा बड़ी अजीब !
जैसी जिसकी भावना, उतने राम करीब !!
 
मोह माया का त्याग कर, रटें राम का नाम!
बन जायेंगे आप ही. तेरे बिगड़े काम !!
 
राम नाम के नाम का , नित्य करे जो पाठ !
सदा रहे खुशहाल वो, रहे हमेशा ठाठ !!
रमेश शर्मा 9820525940
 
 
000000000000 

राजेश कुमार


09810933690
होली रे जोगिया
फाल्गुन में होली का दिन ऐसे जैसे मन मलंग
खेले होली,जैसे जवान तोड़ दे मस्ती में पलँग
मन में मस्ती की छाई है एक बार फिर नई उमंग
शरीर और मन डोल रहा जैसे नई नवेली तरंग
न रखे मन में किसी के प्रति द्वेष ईर्ष्या और भ्रम
यारों होली है छोड़ दो सब को करे कैसा भी कर्म
मन के काले मैल को जला दो होली में इसी जन्म
रंग दें रंग लें सबका अपना तन मन होली में हम
प्राचीन व आधुनिक होली
समय समय की बात है होली आज है कल भी होती थी
आज इन्टरनेट से बधाईयां देते कल थे देते लगा रंगों की
कल की बात है जैसे पड़ोसी होता होली पर आने पर खुश
आज की बात करें, पड़ोसी सोचे क्यों आये ये दिखे नाखुश
मैल मिलाप अब दूर का ही लगता अच्छा सोचे बच्चा बच्चा
लगा दिया थोड़ा रंग तो देखे ऐसे, जैसे जायेगा चबा कच्चा
त्यौहार नहीं मनाओगे तो संस्कार सब में कहाँ से आएंगे
अब तो सब त्यौहार फेसबुक व्हाट्सएप्प पर ही मनाएंगे
समय आएगा कुछ समय में ऐसा होली हो जाएगी गुम
होली दिखेगी फोटो में ढूंढेंगे उसे गूगल में मिल हम तुम
निकलो बताओ मनाओ सिखाओ होली है ऋतु का आगमन
मिलन का त्यौहार है, मनाओ मिलकर अभी सब अपना मन
00000000000

अनिल कुमार सोनी


हो हो होली है ,होली के चंद हाइकु  
 
 
 
होरी खेलत
नंदलाल बृज में
नंदकुमार ।
 
मत मारो जी
श्याम पिचकारी
भीगे अंगिया !
 
मोरी सारी रे
उड़त गुलाल ख
लाल अबंर ।
 
घटा बदली
फागुन आयो गयो
रंगरंगीलो ।
 
फागुन दिन
जीत हार के बाद
रंग गुलाल ।
 
हिय हिलोरें
आतीं सखियां सात
रसिया गावै ।
 
काहे धूम है
काहे की मस्ती छाई
होरी की भंग ।
 
खाई के भंग
नाचे जमुना तीर
बाजे मृदंग ।
 
बृज में धूम
आज होली आई रे
बरसाने में ।
 
उड़ी गुलाल
लाल भये बादर
झुमती धरा ।
 
छोड़ो बहियां
मौरी वनबारी रे
रंग डालूंगी ! 
 
होरी खेलन
कैसे जाऊं बैठीं है
सासो जी द्वारे !
 
आशा के जीते
निराशा के हारे हैं
हुरयारे भी ?
 
राहों में झूमें
पीकर दारू बोलें
बुरा न मनो!
होली है ।
 
डार दो खचा
बाहर निकल दो
गुलाल लगा ।
 
लिखो न दर्द
फर्ज निभाओ साथ
होली मनाओ ।
 
आओ तो सही
कुछ नहीं करेंगे
खाये गे भंग ।
 
आंसू के रंग
गालों पे आ रहे है
यादें  पुरानी ।
 
के गई माया
के गयो खाटू श्याम
हे राम राम ।
 
हवा में भांग
अंबर में उड़े है
गुलाबी रंग ।
 
भांग लगी है
ध्यान भटक गया
होली कब है ।
 
होरी खेलत 
महादेव अंबर 
उड़े अबीरा ।
 
सर्दगरम
माहौल में नाक भी
बहे होली में ।
---.
"तपन सूरज की"
 
तपन सूरज की,
धराशायी करे धरातल को ।
झेलते सभी जीव,
अपना नसीब बरकरार रखने को।
चिंता है उसे सबकी,
जीवन दिया है जिन जिन को।
बँधा हुआ है उससे,
उनको मालूम नहीं होता कभी ।
जाना है जिसने उसको,
तकदीरें बदल जातीं  हैं  उनकी ।
बादल छा जाते हैं ,
बरसे मेघ वो धन्य हो जाते हैं ।
 
अनिल कुमार सोनी
 
0000000000000 

महेन्द्र देवांगन माटी 


दोहा
********
तन मन दोनों चंगा हो, रोग न ब्यापे कोय ।
सरल सहज हो काम भी, मिले सफलता तोय ।।
 
काम करो सब प्रेम से, कटू न मन में आय ।
होत तुरंत ही काज सब, मन में खुशियाँ छाय ।।
 
शीतल मंद समीर चले, तन को देत कंपाय ।
पूष महिना जाड़ा की , बाहर धूप सुहाय ।।
 
कोयल कूकत बाग में, सबके मन को भाय ।
कलियन देखी फूल को, तितली भी मुसकाय ।।
 
महेन्द्र देवांगन माटी 
पंडरिया छत्तीसगढ़ 
 
0000000000 

शालिनी तिवारी


 
 
तुमसे ही सवाल क्यूँ ?
 
जय जवान जय किसान
दोनों आज बेहाल हैं
एक सीमा पर खड़ा है
दूजा खेत में डटा है
अन्न और रक्षा से ही
देश आज भी खड़ा है
देश के जवानों की
वेतन इतनी कम है क्यूँ ?
अन्नदाता आत्महत्या और
भुखमरी का शिकार क्यूँ ?
सबका साथ सबका विकास
इसका उल्टा दिखता क्यूँ ?
फिर तुम मुझसे क्यूँ पूछते हो
तुमसे ही सवाल क्यूँ .....?
 
यह तो गर्व का विषय है
हिन्द नौजवान है
आज दशा देखकर
सत्ता से सवाल है
पीएम साहब कहते हो कि
मैं तो पहरेदार हूँ
पढ़ लिखकर नौजवान
ज्यादातर बेरोजगार क्यूँ ?
तुम तो कहते हो कि ये
गरीबों की सरकार है
फिर गरीब अमीर में दूरियाँ
लगातार बढ़ रही हैं क्यूँ ?
फिर तुम मुझसे क्यूँ पूछते हो
तुमसे ही सवाल क्यूँ .....?
अन्ना जी के आन्दोलन की
रोज दुहाई देते थे
लोकपाल के तरफदार बन
खुद को गाँधीवादी कहते थे
सत्ता में जब आऊँगा तो
जन लोकपाल बनाऊँगा
हिन्दुस्तान के हर खाते में
पन्द्रह लाख भेजवाऊँगा
बीत चले इन तीन बरस में
तुम अपने वादे भूल गए
ललित मोदी और माल्या पर
कार्यवाही क्यूँ न कर पाए तुम ?
फिर तुम मुझसे क्यूँ पूछते हो
तुमसे ही सवाल क्यूँ .....?
 
लोकतंत्र का चौथा खम्भा
भी अब बिकता दिख रहा है
सस्ती लोकप्रियता पर आज
सत्ता का सिरमौर खड़ा है
मैं तो छोटी कलमकार हूँ
सच पर मरने वाली हूँ
कलम प्रथा की मर्यादा को
कायम रखनें वाली हूँ
नहीं चाहिए वाह मुझे इन
चोरों और लुटेरों से
गर तुम कर न सकते हो तो
जुम्लेबाजी करते क्यूँ ?
फिर तुम मुझसे क्यूँ पूछते हो
तुमसे ही सवाल क्यूँ .....?
 
--
आवा हो भइया होली मनाई
 
 
अब तो गावन कै लड़िका भी पप्पू टीपू जानि गएन,
'यूपी को ये साथ पसन्द है' ऐह जुम्ला का वो नकार दहेन,
माया बुआ भी सोचतै रहिगै बबुआ के संग होरी खेलब,
पर 'मुल्ला यम ' कै साइकिलिया का लउड़ै हवा निकार देहेन,
बूढ़ी हाथी बैठ गई और साइकिल भी पंचर होइ गै,
जिद्दी दूनौ लड़िकै मिलिके माया मुलायम कै रंग अड़ाय गै,
राजनीति छोड़ा हो ननकऊ आवा हम सब गुलाल लगाई,
फगुनाहट कै गउनई गाय के आवा हो भइया होली मनाई,
 
भउजी कब से कहत रहीं कि आवा हो देवर होली खेली,
साल भरे के रखे रंगन कै तोहरे ऊपर खूब ढ़केली,
होली अऊतै अपने काका खटिया से तुरन्तै उठि गएन,
फगुनाहट कै गीत गाइकै सबका वो खूब मगन केहेन,
मोदी मोदी कै एकै धुन अब लउड़न में सवार अहै,
खूब खरीदेन केसरिया रंग सराबोर वो देखात अहै,
दिल कै दर्द भुलावा भइया आवा हम सब गले मिल जाई,
प्यार के रंग से रंगि के भइया आवा हो भइया होली मनाई,
 
साल भरे से लखतै रहिगै उनका रंग लगाउब ऐह बार,
नैना नैना चार करब और उनका बनाउब आपन ऐह बार,
फागुन कै गउनई सुनिके वो अपने आप निकरि आई,
देखतै देखत एक पलन मै वो हमका आपन बनाय गई,
अब तो घर से निकरा भइया आवा रंग गुलाल उड़ाई ,
मथुरा के पानी में रंगिके बनारसी लाल गुलाल लगाई,
मन का मैल छुडावा भइया आवा अब रंगीन बनाई,
अवधी रंग में रंगि जा भइया आवा हम सब होली मनाई.....!
000000000000 

ब्रह्मानन्द मद्धेशिया


नारी सौन्दर्य
       """''''"'''''''""""''''''''''''''''
चन्द्रबदन देखा अतिधीरा,                         
नीलवसन में ढकी शरीरा।
गौर वर्ण पर नीली सारी,
मनहुं जलद पर शशि किरण पसारी।
हंसी दिखे,मिले अधीरता नयनों की,
कोई न समझे गति चितवन की।
करती है वह ऐसे काज,
मानो छिपे हो कोई राज़।
मुस्कान दिखे बीच पट झीन,
गति वैसे जैसे हो मीन।
जल ही जीवन है,
यह जाने मीन।
बिन पानी,
जीवन कितने दिन ?
-----.
   कामना
                           वर जीवों का जीवन क्या ?
                           जिसका कोई लक्ष्य न हो।
तन जर करता हरता जीवन,
जीवन में जिसके सुप्रभात न हो।
मन मलिन कर सोये रहना,
जिसका कोई अमरत्व न हो।
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
लो अंगड़ाई दीप जलाये,
सारे तम जग से मिट जाये,
अंधेरी अवरोध पथ व कलुषता से,
क्यों मुक्त न हो ?
                           वर जीवों का जीवन क्या ?
                            जिसका कोई लक्ष्य न हो।
जलते दीप की ज्योति बढ़ा दे,
कहीं निशा अंधकार न हो।
जाति-पाँति,छूआछूत,आडम्बर,
और अमनुष्यता का भाव न हो।
समता बढ़ती खाई पटती,
जीवन का कोई क्षण भययुक्त न हो।
                           वर जीवों का जीवन क्या ?
                           जिसका कोई लक्ष्य न हो।
जीवन में वह मानव जीवन हो,
जिससे जीवन मानव का हो।
ज्ञान,दया,प्रेम,परोपकार,
सहयोग व करुणा से मुक्त न हो।
रहे सदा गुणों से युक्त,
कभी मानवीय मूल्यों से मुक्त न हो।
निज उन्नति हो जगजीवन में,
दुर्गम पथ में भी कहीं अवरोध न हो।
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
                         ब्रह्मानन्द मद्धेशिया
                 ओबरी निचलौल महराजगंज
 
00000000000 

जयति जैन


 
मर जाने दो बेटियों को…
लिंग परिक्षण कर भेदभाव जताया
मारने को उसे औज़ारों से कटवाया
इतनी घृणा है उसके अस्तित्व से तो
मर जाने दो बेटियों को
घोडा-गाडी, बंगला-पैसा नहीं चाहिये
स्वाभिमान- स्नेह भरी जिंदगी चाहिये
नहीं दे सकते तो
मर जाने दो बेटियों को…
घर के आंगन में पौधा तुलसी चाहिये
पहले नन्ही पौध को तो आंगन में लाइये
नहीं सींच सकते प्रेम से तो
मर जाने दो बेटियों को…
तेज़ाब डालकर मारना चाहा
छोटी-छोटी खुशियों के लिये तड़पाया
जीने के अधिकार नहीं दे सकते तो
मर जाने दो बेटियों को
नारी की हर क्षेत्र में तरक्की चाहिये
पहले घर की बेटी को तो सपने दिखाइये
नहीं जीने दे सकते खुलके तो
मर जाने दो बेटियों को…
लेखिका- जयति जैन, रानीपुर झांसी
 
0000000000 

रश्मि शुक्ला


 
नारी और पुरुष
अगर नारी सम्मान की हक़दार है,
तो पुरुष को भी सम्मान का अधिकार है,
क्यों इतने लेख,कवितायें,और दिन नारियों के लिए बनाये जाते हैं,
क्यों हर बार पुरुष ही गलत ठहराए जाते हैं,
सत्य है की नारी बिना सूना ये संसार है,
मगर पुरुष के बिना नारी भी तो बेकार है,
चलती नहीं है दोनों के बिना ही जीवन की नईया,
अगर नारी है जीवन की पतवार तो पुरुष है उसका खिवैया,
संसार की किताब में दोनों का ही बराबर योगदान है,
नारी अगर भक्त है तो पुरुष ही उसका भगवान है,
अपनी सोच को थोड़ा सा बुलंद करो,
और ये बेकार के त्यौहार मनाना बंद करो,
 
--
ए मेरे मालिक
ए मालिक मुझे इतना कामयाब बना दे,
मेरे अपनों के लिए मुझे तोहफा नायाब बना दे,
कभी कमी न आये किसी को देकर मेरे खजाने में,
ऐसा ए मालिक मेरे जीवन का हिसाब बना दे,
जब भी उदास होकर कोई करे अपनी किस्मत से सवाल,
उसके सवाल का मुझे जबाब बना दे,
काम आऊं सदैव मैं हर किसी असमर्थ के,
ऐसा मेरा जीवन ए मालिक लाजबाब बना दे,
दिल कभी किसी का न दुखे मेरी वजह से,
मेरी आदतों को ए मालिक ऐसा बेहिसाब बना दे,
--.
समझ आता ही नहीं किस चीज की जरुरत है इंसान को,
बिना मतलब की चीज़ खरीदने के लिए बेच आता है ईमान को,
कोशिश क्यों नहीं करता है अपने दिल को बहलाने की,
ज़िद ठान लेता है जाने क्यों चाँद सितारे तोड़ लाने की,
अक्सर प्रेमियों को कहते सुना है अपने हमसफ़र से,
जाना तुम्हारे लिए तो मेरी जान भी हाज़िर है,
मगर कमबख्त जानते नहीं इस जान को इंसान,
बनाकर दुनिया में लाने के लिए माता पिता भी शामिल है,
अपनी जिंदगी को इतने सस्ते में और हर किसी के लिए मत गवांओ,
जीवन है अनमोल तुम्हारा इसे हमेशा अच्छे कामों में लगाओ,
इंसान वही है जो सदैव दूसरों के काम आता है,
वरना खाकर पीकर तो जानवर भी आराम फरमाता है.
--
एक बार बचपन में न जाने मैंने क्या शरारत की थी,
तब मेरी माँ ने सबसे बचाने के लिए मेरी हिफाजत की थी,
सोचा शायद मैंने कोई अच्छा काम किया है,
तभी तो माँ ने मेरा इस शरारत पे साथ दिया है,
थोड़ा बड़े हुए माँ हर गलती पे मुझे समझाने लगी,
मेरे साथ ही अपना सारा वक़्त बिताने लगी,
सोचा बचपन की शरारत को क्यों न फिर से दोहराऊँ,
माँ फिर से लेगी सह मेरी गलतियों की,
और मैं फिर से जाकर माँ के आँचल में छुप जाऊं,
मगर बीता वक़्त कहाँ लौट कर आता है,
बार बार हमारी गलतियों को कौन सहराता है,
माँ में ही वो जज्बा था जो एक मेरे लिए सबसे लड़ जाती थी,
मुझे जिताने के लिए हमेशा अपनी बात पे अड़ जाती थी,
काश वो बचपन के अनमोल दिन फिर से लौट आये,
और बचपन की तरह अपनी माँ के सिवा हमें कोई न भाये,
 
00000000000000

नवीन कुमार जैन


नारी
स्नेह की धारा है वह, है वात्सल्य की मूर्ति
विरुद्ध वही,वन वही, कालिका की वो पूर्ति
राष्ट्र , समाज और परिवार को वो समर्पित
स्व - पर, हित को करती प्राण भी अर्पित
वाणी वही, गिरिजा वही, है दामिनी भी वह
कल्पना वो, प्रतिभा वही है कामिनी भी वह
किरन है वह, है सुभद्रा , है महादेवी भी वह
सृजक है वो समाज की समाजसेवी भी वह
है मदर टेरेसा, ऐनी बेसेन्ट, यशोदा भी वह
है अनैतिक समर में संघर्षरत,योद्धा भी वह
बोझ नहीं है , अबला नहीं, न द्वितीय है वह
वह धरा पर देवी रूप ,नारी, अद्वितीय वह
जननी वही , गृहणी वही , नंदिनी भी है वह
भगिनी वही , सती वही , संगिनी भी है वह
बरछी वही , कलम वही, तलवार भी है वह
कंचन वही, चाँदी वही , अलंकार भी है वह
शस्त्र भी वह, शास्त्र भी वह,शक्ति भी है वह
अस्त्र है वह,आस्था भी वह,भक्ति भी है वह
- नवीन कुमार जैन
2)
चंद शब्द
चंद शब्दों में कोई समाहित कर देता संसार
चंद शब्दों से कोई प्रभावित कर देता अपार साहित्य शिल्पी चंद शब्दों से मन हर लेता
प्रबल वक्ता चंद शब्दों से बन जाता है नेता
चंद शब्द, व्यक्ति का व्यक्तित्व बता देते हैं
चंद शब्द ही, अनगिनतों को, लड़ा देते, हैं
चंद शब्द तारीफ के किसी को फुला देते हैं
चंद शब्द ही भाई मेरे किसी को रुला देते हैं
चंद शब्द ही पा जाते श्रोताओं की तालियाँ
चंद शब्द ही कहने से सुननी पड़तीं गालियाँ
बोलो सोच समझ के भईय्या चंद शब्द तुम











नाम बड़ा करते हैं या,कर देते खुशियाँ गुम
इसलिए भई चंद शब्द सोच समझ के बोलो
जहाँ दिमाग न काम करे, वहाँ न मुँह खोलो

- नवीन कुमार जैन
3)
सफर
सफर बहुत लम्बा है अभी , राही पर तुम बढ़ते जाना ।
होकर दृढ़ संकल्पित तुम, मन में कोई विकल्प न लाना ।।
पथ की बाधाओं को पुरस्कार समझ ग्रहण उन्हें करते जाना ।
पाना तुम वही , पा कर रहना जो तुमने मन में ठाना ।।

- नवीन कुमार जैन
4)
मद्यपान - एक विकृति
घर उजाड़ देती है ।
तबियत बिगाड़ देती है ।।
तन मन करती खराब ।
शराब, शराब, शराब ।।

रिश्ते नातों को तोड़ती ।
बीमारियों से नाता जोड़ती ।।
तन मन करती खराब ।
शराब, शराब, शराब ।।

घर में कलह का बनती कारण ।
चिंता का भी न करती निवारण ।।
तन मन करती खराब ।
शराब, शराब, शराब ।।

कर देती कंगाल ।
बनती जी का जंजाल ।।
तन मन करती खराब ।
शराब, शराब, शराब।।

दुखमय कर देती, सुखी परिवार ।
शराबी का नष्ट करती संसार ।।
तन मन करती खराब ।
शराब शराब शराब ।।

समाज में कर देती बदनाम ।
बुरे - बुरे करवाती काम ।।
तन मन करती खराब ।
शराब शराब शराब ।।

विकृति है ये समाज की ।
विकराल समस्या है ये आज की ।।
हर लेता सुखी जीवन,दौलत और शान ।
मद्यपान , मद्यपान , मद्यपान ।।

समाज के लिए है हानिकारक ।
पीड़ादायक, हृदय विदारक ।।
हर लेता सुखी जीवन दौलत और शान ।
मद्यपान , मद्यपान , मद्यपान ।।

अब करलो दृढ़ संकल्प ।
मन से हटा दो विकल्प ।।
जो है नाशवान ।
नहीं करेंगे मद्यपान ।।



- नवीन कुमार जैन

5)
प्यारी प्रकृति
तन झंकृत हुआ स्पर्श कर हरित पर्ण
मन महका देख प्रकृति के विविध वर्ण
वो पर्ण, हिममय, ओस से भींगे, हुए 
ऊर्जावान हैं जो प्रकृति से, मैंने थे छुए
उस स्पर्श से मिली थी तन को ताजगी
चित्त शांत हुआ मिटी चिंता नाराजगी 
जब प्रकृति का अकिंचित अतिन्यून अंग 
भर देता मन में उमंग, तन में तरंग 
सोचो जब प्रकृति को ही स्पर्श करूँ ?
प्रकृति में गोद में , मैं अपना सिर धरूँ
जो आत्मा का प्रकृति से हो जाए संग
तो अनेकों जीवन में, भी भर जाएँगे रंग
फिर न जन्म - मरण रहे, न, आत्मा
जाऊँ उसकी शरण में जो स्वयं परमात्मा

- नवीन कुमार जैन


साहित्यकार परिचय

नाम - नवीन कुमार जैन
पिता का नाम - श्री मान् नरेन्द्र कुमार जैन
माता का नाम - श्री मती ममता जैन
पता - ओम नगर काॅलोनी, वार्ड नं.-10,बड़ामलहरा, जिला- छतरपुर, म.प्र.
जन्म तिथि - 27/01/2002
विद्यार्थी, अध्ययनरत
लगभग 12 वर्ष की उम्र से ही फिल्मी गानों की तर्ज पर भजन रचे जिनकी विभिन्न धार्मिक मंचों पर प्रस्तुति दी । स्थानीय पत्र - पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है । विभिन्न मंचों पर काव्य पाठ किया है । 
मेरी एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है - मेरे विचार ।
लगभग 3 वर्ष का साहित्यिक अनुभव है वर्तमान में पढ़ाई के साथ - साथ साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेता हूँ ।



प्राप्त सम्मान

द्रोण प्रांतीय नव युवक संघ द्रोणगिरि प्रतिभा सम्मान
चेतना सम्मान
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति प्रतिभा प्रोत्साहन पुरस्कार
श्रमणोदय जैन अवार्ड 2016
जैन युवा प्रतिभा सम्मान, यंग जैना अवार्ड 2016
प्रतिभा सम्मान और धार्मिक शैक्षणिक शिविर सम्मान एवं अन्य सम्मान प्राप्त हैं । 
00000000000

कीर्ति वर्धन मणि मिश्र



  
नव वर्ष में हर्ष ही पाओ           
नव वर्ष में हर्ष ही पाओ 
दुख, राग-द्वेष ना पाओ तुम; 
जो मिलें खबर सब खुशी के हों 
ग़म का संदेश ना पाओ तुम! 
  
रंग, जाती-धर्म, बोली-भाषा के 
नाम पे हो मतभेद जहाँ 
है ईश से करबद्ध निवेदन 
ऐसा परिवेश ना पाओ तुम!! 
  
खुशियाँ सारी मिलें विशेष 
पर ग़म विशेष ना पाओ तुम 
सदा सुखों में रहो विचरते 
ग़म का देश ना पाओ तुम! 
  
नव वर्ष पे ईश से, खातिर तुम्हारे क्या मांगूं? 
सुख-समृद्धि, रंग-रूप, शोहरत-दौलत ?  छोड़ो; 
वो सब पा लो, जो पाना अब तक तुमको शेष हो 
है कामना दिल से यही;"यह वर्ष तुम्हारे लिए विशेष हो!!" 
  
कवि परिचय - कीर्ति वर्धन मणि मिश्र , एम.बी.बी.एस प्रथम वर्ष , भारती विद्यापीठ , सांगली , महाराष्ट्र ।मूल निवास - बेतिया, बिहार। 
  
000000000 
-

तेजू जांगिड़



मन
मस्तिष्क में प्रलय मचा है,
इस बात को की क्या लिखूं?
कह रहा है कुछ लिख,
ना जाने मन है या मस्तिष्क।
शायद मन ही होगा,
मस्तिष्क में तो तूफ़ान मचा है।
मन कुछ भी कह देता है,
पागल है वो तो।
मुझे भी लगता है,
कुछ पागलपन भी होना चाहिए।
लगता है बारिश भी हुई है,
मस्तिष्क के तूफ़ान में,
तभी तो ये अंकुर फूटे।
अब तूफ़ान भी शांत है,
पर मन, अभी भी...।
           
0000000000 

अक्षय भरद्वाज "आवारा"



मनुष्य मन 
  
मनुष्य मन है कि , मानता नहीं 
ले जाता है, अलग राहों पर 
भटकाता ! झुलसाता ! उन राहों पर 
अकेले पथिक की तरह छोड़ आता, उन राहों पर, 
जब चक्षु खुलते , 
सत्य सामने आता है, 
यह तृण रूपी मनुष्य तीव्र समीर से टक्कर खता है, 
मझधारों में घिर जाता है, 
त्रुटियों का एहसास ख़ुद- ब- ख़ुद हो जाता है, 
फ़िर आँसू पोंछ अभिमान दिखता है। 
परन्तु कब तक टिकेगा अशक्त अभिमान, 
इस तीव्र समीर के सामान , 
इसे धकेल देती है ये हवाएँ, 
उन रन्ध्रों पर जहाँ नहीं एक बूँद भी प्रकाश, 
जो दे इसे इक छोटी सी आस, 
तब टूटता है पूर्ण अभिमान , 
और खुलते हैं, मन के बंद पट द्वार, 
फिर कहता है मन, 
मन से करो ! मन की न करो ! 
---- 
@ हमारा शहर भोपाल@ 
  
चोरी-चोरी,चुपके-चुपके,महताब का छिप जाना 
धीरे-धीरे,मद्धम-मद्धम,आफ़ताब का निकल आना 
हौले-हौले, छम-छम, चाँदनी का रोशनी में सिमट जाना 
पिघल-पिघल,चमक-चमक,शबनम का चमचमाना 
इश्क़-ए-झीलों की इबादत की नज़ाकत से बना है 
हमारा शहर भोपाल मस्ताना..... 
  
मीठे-मीठे,सोणे-सोणे,सुरों विचे प्रकृति का गुनगुनाना 
छन-छन,कन-कन,कुदरत का कामिनी सा झिलमिलाना 
महक-महक,मंद-मंद फ़िज़ाओं का फुसफुसाना 
सुर्ख़-सुर्ख़,मख़मली-मख़मली मौसम-ए-मयखाना 
शरारती इश्क़, शराबी प्यार,शबाबी मोहब्बत से बना है 
हमारा शहर भोपाल दीवाना...... 
  
गमक-गमक,ग़ुल-गुल,गुलों का गुलगुलाना 
ज़ुल्फ़-ज़ुल्फ़,खिल-खिल कलियों का खिलखिलाना 
लब-लब, लम्स-लम्स लड़कियों का सूफियों सा मुस्कराना 
जिस्म-जिस्म,रूह-रूह,फ़रिश्तों का समा जाना 
आँखों के परों,तितलियों के घरों,दिलों के दिल से बना है 
हमारा शहर भोपाल सूफ़ियाना...... 
  
सूफ़द-सूफ़द, मरमरी-मरमरी,बादलों में तारों का टिमटिमाना 
मंदिर-मंदिर,मस्ज़िद-मस्ज़िद,अजनों में आरतियों का घुल जाना 
मन्नत-मन्नत,ज़न्नत-ज़न्नत ख़ुदाओं का जमी पर उतर आना 
लफ़्ज़-लफ्ज़,नज़्म-नज़्म,नागमों सा नमाज़ी नज़राना 
मियाँ के मिज़ाज,तारों के ताज़, नवाबी अंदाज़ से बना है 
हमारा शहर भोपाल शायराना....... 
  
मदहोश-मदहोश,सुरमई-सुरमई, रातों में लड़कों का फकरों सा बहक जाना 
बावरी-बावरी,पगली-पगली,घुमकड़ सी गलियों में खो जाना 
सलोनी-सलोनी,मतवाली-मतवाली,चाय की चुस्कियों का बहाना 
नशिली-नशिली,शर्मीली-शर्मीली,बोटकल्ब की कस्तियों का मस्तियाना 
भोज कि खोज,सूरमा भोपाली की मौज,मोती की मीनारों से बना है  
हमारा शहर भोपाल महवारा...... 
  
प्रेषक 
अक्षय भरद्वाज "आवारा" 
क्षैत्रीय शिक्षा संस्थान   
भोपाल 
462013 
फोन-9039127036



000000000000

कृष्ण कुमार चन्द्रा

                


मैं दिव्यांग भी हूं 
हां मैं बहरा हो जाता हूं
उस समय 
जब कोई मुझसे
किसी और की
बुराई करता है। 
आंखों को भी मूंद लेता हूं 
जब निंदक इस बात पर
खुद के सिर की
धुनाई करता है। 
वाकई स्थान की कमी है
मेरे कान के घूरे में। 
संवेदना की कमी है
मेरी आंखों के चबूतरे में। 
किंकर्तव्यविमूढ़ सा होकर
थक-हार बैठ निंदक
बड़ी चतुराई करता है। 
मेरे मुंह में तो
ताले भी पड़ जाते हैं
किसने किसकी क्या बुराई की
इसे बताने के
लाले भी पड़ जाते हैं
मात्र मेरा सिर 
इस बोझ की
ढुलाई करता है। 
निंदारस के मामले में
अच्छी नीति है
दिव्यांग हो जाना। 
मैंने साधा है इसे
मन करे तो आप भी
साध लेना। 
                कृष्ण कुमार चन्द्रा 
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रुचि प जैन

     विचार
विचार बोला अपने साथी से,
दुनिया चलती हमारे ही दम से।
विचार ने ही नृप बनाया इस धरा का,
चल पड़ा वो मनवाने दुनिया में अपना डंका।
रहता मगन मस्त अपनी कुटिया में,
होता न क़त्लेआम दुनिया में।
विचार ने ही बनाया एक को फ़क़ीर ,
और दूसरे को अमीरों का अमीर।
विचार ही कर देता है मन को पुल्कित,
ओर यह ही कर देता सबको भ्रमित।
प्रगति टिकी मानव के विचारों पर,
ये ही ले जाते उसको उन्नति के पथ पर।
भेद भाव का अंतर विचारों से ही आता,
जन्म मरण के चक्र में ये ही सबको उलझाता।
आज हर तरफ़ विचारों का ही साम्राज्य है,
नहीं तो ये तेरा ये मेरा इसका क्या अभिप्राय है।
छूट जाता एक दिन यहाँ पर सब,
प्राण पखेरु होते जब।
थाम लो इन विचारों को तुम अभी,
कह गये महात्मा सभी।
बाँध दो विचारों को सकारात्मक की डोरी से सभी,
बना सकोगे इस धार को भाईचारे का चमन तभी।
                       रुचि प जैन
     Email id -ruchipjain11@yahoo.com 
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डाली दुबे



बेटी गले पड़ी 
  
वक्त की मारी हुई हूं 
या ठोकर हूं रास्ते की 
मैं बेटी हूं तुम्हारी  
या आफत गले पड़ी 
            
                                कभी तो माँगा होगा ना 
                                 तुमने दुआओं में मुझे  
                                 या लाचारी में दी हुई  
                                 इबादत गले पड़ी 
किया तो होगा ना तुमने   
इन्तजार मेरा बेबसी से 
या दुःख भरे समय की 
मैं इनाम गले पड़ी  
                             मेरे दर्द में भी तुम 
                             तड़पी जरूर होगी ना 
                            बीना चढ़े मंदिर की सीढ़ी 
                             एक मुराद हूं गले पड़ी 
गाये होगे बधाई के 
गीत आँगन में तुम्हारे  
बिना मौसम की हवाएँ  
आफत हूं गले पड़ी  
                              क्या कम सहा था तुमने                               
जो चाहा उसे बहुत 
                              क्या ज्यादा तड़पा कर  
                               मैं हूं बेटी गले पड़ी 
क्यों ख्वाहिशों के पतंग  
पकड़ा या उसे है तुमने  
मैं नहीं संभालती 
जो चाहत गले पड़ी  
    
                              
लेखक परिचय-  
डाली दुबे 
जन्म-12 मई,1993 
स्नातक,मुम्बई विश्वविद्यालय 
स्नातकोत्तर(हिंदी) प्रथम वर्ष 
मुम्बई विश्वविद्यालय,मुम्बई   
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ध्रुव सिंह "एकलव्य" 



"मत पूछ ! देश है क्या ?" 
  
  
  
मत पूछ ! देश है क्या ? 
  
हृदय पल्लवित,विद्वेष बना  
प्रेम मुझे है,राष्ट्र से मेरे  
अंतर्मन एक द्वेष जगा  
  
मत पूछ ! देश है क्या ? 
  
वो खाते हैं देश की रोटी  
बातें करते,देशद्रोह की  
हम भूखे हैं अपने घरों में  
करते हैं वो आँखमिचौली  
  
मत पूछ ! देश है क्या ? 
  
सुशोभित हैं,सिंहासन उनसे  
करें देश आह्लादित क्षण में 
स्वप्न दिवा के हमें दिखायें  
देश एकता पाठ पढ़ायें  
कठपुतली सा हमें नचायें  
  
मत पूछ ! देश है क्या ? 
  
एक वीर,सीमा पे खड़ा है  
दूजा सीने पर,मूँग दले  
लहू-पसीना एक करे वो  
एक पानी का मोल कहे  
  
मत पूछ ! देश है क्या ? 
  
वो बेबस बन,सीमा प्रहरी  
देश की हालत देखे जाये  
श्वेत वस्त्र पहनता दूजा  
भीतर-भीतर स्वांग रचाये  
  
मत पूछ ! देश है क्या ?  
  
कभी रूप वो,घुन का पहने  
दीमक सा ख़ुद चाटे जाए  
चेत न हमको,सत्य ज्ञान का  
ईंट नींव की खाता जाए  
स्वयं बना है देशभक्त  
देशद्रोही,बतलाता जाये  
  
मत पूछ ! देश है क्या ? 
  
  
ध्रुव सिंह "एकलव्य"  
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ममता राठौड़



बेटी की पहचान।
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इस आँगन की गुड़िया मैं,
लक्ष्मी सरस्वती दुर्गा मैं।
इस अयन में खेली फली,
फिर क्यों दामन छुड़ा लिया?
जीवन से पहले ही ,
क्यों मुझको मिटा दिया?
जब होती बेटों की बातें,
हँस हँस कर सब मिले।
जब बेटी की बारी आई तो,
मुँह फेर कर क्यों चले?
क्या गुनाह मेरा है माँ?
कोई मुझको बता दे।
तू क्यों इतनी मजबूर है माँ?
कोई तो वजह दे।
फेंका क्यों है खुले आलोक में,
संकट में क्यों आँचल छोड़ा?
कोमल नन्ही जान से,
क्यों तुमने नाता तोड़ा?
जगत ने नाम दिया था लक्ष्मी,
वो भी सबने भुला दिया।
चंद लोगों की सुनली तुमने,
मेरी पहचान को मिटा दिया।
अपना बना कर देखो मुझको,
रोशनी ढूंढ लाऊंगी।
संकट आये कोई जो,
उससे मैं लड़ जाउंगी।
दिया नहीं कभी कोई मौका,
सबने हमेशा पराया बना कर सोचा।
अब तो मुझको अपना लो,
एक नयी पहचान दो।
                     ममता राठौड़ 
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          ••• *हवा की धुन* •••
*__________________________*
             ये हवा कह रही 
           कुछ नया सा समां।
            लग रहा मुझे भी
            कुछ नया सवेरा।
            मेरा मन उड़ रहा 
         इस हवा के संग संग।
        मेरी जिंदगी में आ रही
            एक नई किरण।
            उसको पा लूँ मैं
           कह रही ये हवा।
            दे रही एहसास
         कुछ नया कुछ गया।
            वो यादें वो पल
        फिर से ला रही हवा।
           खो गई खो गई
        इस हवा में खो गई।
         जानू ना कहाँ गया
        कहाँ गया मेरा मन।
ये हवा चल रही जैसे कोई सुरीला राग।
ये हवा कह रही सालों का कोई राज। 
                       - ममता राठौड़
*__________________________* 
पता
नाम: ममता राठौड़।
जिला: जोधपुर।
राज्य: राजस्थान।
रूचि: नृत्य,कविता।
वर्तमान में काम: विद्यार्थी। 
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-गौतम गोप




अब बोनसाई नहीं रहीं 
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जब भी मुलायम और मासूम कोपलें निकले 
माली तोड़ दिए, 
जब भी शाखाएं विकसित हुई 
माली काट दिए, 
क्योंकि समाज को दिखाना था 
कि मेरे आँगन के पौधे 
बोनसाई है 
उनकी शाख देहरी नहीं लांघते। 
पर बोनसाई नहीं रहीं 
अब वो पौधें। 
गमलों से निकलकर 
हर क्षेत्र में वृक्ष बन खड़े हो रहे हैं, 
हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर 
विशाल वृक्ष होने का प्रमाण दे रही है। 
अनचाहा ही आँगन में उगने वाले 
ये पौधे 
अच्छी मिट्टी 
अच्छा पानी अच्छा खाध मिलने पर 
फल,सोना दे रही है। 
  
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कमलेश चौधरी



भारत 



भारत   वही   है  जो  
प्राचीनकाल  में हुआ  करता  था  , 
देव  थे  दानव  थे  मानव  थे  , 
आज  देव  नहीं  दानव  नहीं  है  सिर्फ  मानव  ही   
दायित्व  देव  का  दायित्व  दानव  का  
आज  हथिया  लिया है  मानव ने  
भारत  वाही  है  जो  
प्राचीनकाल  में हुआ  करता  था , 
परिस्थितियाँ  बदली  परिभाषाएं बदली  
राम  ही नहीं  रावण  ही  नहीं  
रामायण  सारी  बदल  गई | 
कृष्ण  ही नहीं कंस  ही नहीं  
महाभारत  सारी बदल  गई  | 
भारत  वही है  जो  
प्राचीनकाल में हुआ करता  था | 
  
  
सौगंध संविधान की 
कभी 
राम के हाथों रावण के अहंकार को 
विध्वंस  होते सुना है | 
अभी 
लोगों के हाथों महकते हुए 
चमन को उजड़ते देखा है | 
कभी 
कृष्ण के हाथों कंस की दानवता को 
विध्वंस होते सुना है | 
अभी 
लोगों  के हाथों कुसुमित  गांवों को 
मूर्छित होते देखा है | 
कभी 
बाबा आम्बेडकर के हाथों संविधान को 
गठित होते सुना है | 
अभी 
नेताओं के हाथों संवैधानिकता को 
टूटते हुए देख रहा हूँ | 
  
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वगताराम चौधरी


नेताजी टेढ़े कौऐ से
नजर उनकी बहुत बुरी
मैंने पूछा कैसे पंछी हो नेताजी
बड़े बड़े घोटाले करते हो!
इतने बड़े नहीं छोटे कर लिया करो
चलेगा
हक तो नहीं
फिर भी..
चलेगा...
सारे पंछियों में केवल कौआ ही है
जो दाना नहीं चुगता
नेताजी भी है कौऐ से
जिनको दाना छोटा लगता है
.
नेताजी है कौऐ से
जो पराया परिवार पालता है
और खा जाते है धोखा
जब सच्चाई पता चलती है
टेढ़ी नजर में पता नहीं चलता
बच्चे के मुंह में भोजन डालता है
कोयल के बच्चे कोयल नहीं
कौआ पालता है
ऐसे ही कई नेता
जो है कौऐ से
जिनकी नजर टेढ़ी होती है
चाल टेढ़ी होती है
.
सच कहूं
दुनिया में केवल
नेता और कौआ ही टेढ़ा होता है
*************

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