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नई डिग्रियां (भाग-2)

‘‘बरखुर्दार । क्या आप यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक्स विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. देवेन्द्र नाथ भारती जी के सुपुत्र हैं?’’
शैल ने चौंक कर पूछने वाले उस व्यक्ति को देखा था। वह एक लम्बा-चौड़ा व्यक्ति था। यों तो रख-रखाव के कारण उसकी उम्र कम लग रही थी, लेकिन वह जरूर साठ साल पार कर चुका होगा। मतलब वह अधेड़ था, बल्कि यों कहना सटीक होगा कि जीवन के चौथे चरण में प्रवेश कर रहा था। चेहरे पर झुर्रियां परिलक्षित होने लगी थी। त्वचा में भी काफी ढीलापन आ चुका था। फिर भी उनके उस खंडहर रूपी बदन को देख कर सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि इमारत कभी बुलंद रही होगी। लम्बा कुर्ता एवं चुस्त पैजामा बता रहा था कि वह किसी पार्टी का नेता था। कुल मिला कर उसके व्यक्तित्व से शैल काफी प्रभावित हो उठा था।
‘‘आप ने ठीक पहचाना महाशय जी। परन्तु आप का परिचय ?‘‘ शैल ने प्रतिप्रश्न कर डाला था।
‘‘लोग मुझे संतराम विद्रोही कहते हैं। कभी मैं इस क्षेत्र का विधायक था। सम्प्रति जन-जागरण पार्टी का अध्यक्ष हूं। जन-जागरण पार्टी, मजदूरों, किसानों, गरीबों, दलित-कुचले लोगों, अकलियतों एवं मजलूमों की पार्टी है। जन-जागरण पार्टी जन-साधारण की पार्टी है। विधान सभा एवं लोक सभा में जनता की आवाज है। कभी इस पार्टी ने विधानसभा और लोकसभा दोनों के चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था। परन्तु फिलहाल इस पर राहू की नजर लग गई है। इसके सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। इसके कई विधायकों एवं सांसदों को धन बल से पूंजीपतियों की पार्टियों ने तोड़ कर अपने में मिला लिया है। खैर, इस पार्टी के दिन पुनः फिरने लगे हैं और पार्टी जुम्बिशें लेने लगी है।’’
‘‘महाशय जी! वैसे तो मैं आप का नाम पहले ही सुन चुका हूं, परन्तु दर्शन पाने का सौभाग्य आज ही प्राप्त हो सका है। खैर मैं यह जानना चाहूंगा कि महाशय ने मुझसे मिलने का कष्ट क्यों किया ?
’’वाह क्या कहना है। सचमुच मैंने जैसा सुना था, उससे भी अधिक सुलझा हुआ आप को पाया। बरखुर्दार आज के जमाने में, युवा शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। वैसे भी मानव समाज में बदलाव या क्रांति सदा युवाओं के कंधे पर ही चढ़ कर आई है। खुदीराम बोस, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद विस्मिल वगैरह सभी नौजवान ही तो थे. जिन्होंने मातृभूमि को आजाद कराने के लिये हंस-हंस कर अपना बलिदान नहीं दिया होता तो आज अपना देश आजाद नहीं हुआ होता। आज भी अपना देश अंग्रेजों का उपनिवेश और चारागाह होता तथा हम सभी अंग्रेजों के गुलाम होते। लेकिन उन युवा शक्तियों ने देश को आजाद करा कर ही दम लिया। इसका फल भी उन्हें मिला। अपने देश में असंख्य लोग जन्मे और मरे। उन्हें कोई नहीं जानता। परंतु इन नौजवानों के नाम इतिहास के पन्नों में सदा के लिये स्वर्णाक्षरों में अंकित हो चुके हैं।
बरखुर्दार, मैं उसी युवाशक्ति की खोज में आप के पास आया हूं। आज देश को, अपने राज्य को पुनः एक सामाजिक क्रांति की आवश्यकता आ पड़ी है और बिना एक परिपक्व एवं अनुभवयुक्त प्रौढ़ निर्देशन के तहत युवा शक्ति के पराक्रम के वह क्रांति पूर्ण हो नहीं सकती है। इसीलिये उस युवा शक्ति की खोज में मैं भटक रहा हूं। परंतु लगता है जैसे भगवान ने मेरी खोज अब पूरी कर दी है। क्योंकि उस युवा शक्ति को मैं आप में विद्यमान पा रहा हूं।’’
उस व्यक्ति ने पुनः एक लम्बा-चौड़ा सा भाषण दे डाला था।
संतराम विद्रोही जी की वक्तव्यकला से शैल तब अत्यन्त प्रभावित हो उठा था। उसने बहुत ही अनुगृहित शब्दों में कहा, ‘‘महाशयजी, यह आप की जर्रानवाजी और बड़प्पन है कि मुझ जैसे अकिंचन, एक अदने से युवक की आप इतनी तारीफ कर रहे हैं। वैसे महाशय जी कृपया यह बताने का कष्ट करेंगे कि मैं महाशय की क्या सेवा करूं?’’
‘‘अ... हं... हं... हं... सेवा। नहीं, नहीं नौजवान। इसे सेवा नहीं कहिये। सेवा तो दासकर्म है। सेवा, सेवक करता है। मैं किसी सेवक की खोज में नहीं भटक रहा हूं। मुझे सहयोगी चाहिये। इसीेलिये नौजवान, इसे सेवा न कह कर सहयोग कहें तो सही नामकरण होगा। मैं आप से सेवा की नहीं, सहयोग की अपेक्षा रखता हूं।
‘‘क्षमा करेंगे महाशय जी। मुझसे यदि शब्दों के चयन में कोई गलती हुई हो तो। वैसे आप स्पष्ट रूप से कहें कि मुझे क्या करना होगा? किस तरह मैं आप का सहयोग कर सकता हूं।’’
‘‘वाह-वाह। यह हुई न काम की बात। तो बरखुर्दार, सर्वप्रथम मैं चाहूंगा कि आप जन-जागरण पार्टी का झंडा थाम कर युवाओं में क्रांति की लहर फूंक दें। कभी इस कॉलेज के छात्र यूनियन में जन-जागरण पार्टी का वर्चस्व था। पार्टी की एक आवाज पर सारे के सारे छात्र एवं छात्राएं भी सड़क पर उतर आती थीं। फलतः पार्टी ने तब इस क्षेत्र में विधानसभा एवं लोकसभा दोनों चुनावों में अपनी सफलता का झंडा गाड़ दिया था। परन्तु कालान्तर में प्रतिद्वंद्वी दल ने, जो पूंजीपतियों और सामन्तशाहों की पार्टी है, उसने धन बल का प्रयोग कर जन-जागरण पार्टी में भारी तोड़-फोड़ मचा दी। काँलेज के छात्र यूनियन के अध्यक्ष और सचिव दोनों जन-जागरण पार्टी के थे। वे भी बिक गये। इससे जन-जागरण पार्टी को बहुत बड़ा झटका लगा है।
मैं चाहता हूं कि जन जागरण पार्टी का वर्चस्व पुनः कॉलेज के छात्र यूनियन में हो। उससे पुनः इस क्षेत्र में जन-जागरण पार्टी का वर्चस्व कायम होने लगेगा। क्योंकि तब जन-जागरण पार्टी को युवा शक्ति की ऊर्जा मिलनी शुरू हो जायेगी। इसीलिये कॉलेज के छात्र यूनियन के आगामी चुनाव में, जो निकट भविष्य में होने जा रहा है, उसमें आप जन-जागरण पार्टी की ओर से विजय का झंडा गाड़ने की तैयारी में लग जाएं। आप के साथ सहयोग के लिये मेरी पुत्री सदा उपलब्ध रहेगी। वह इसी कॉलेज में इंटर की छात्रा है। आप इंटर के प्रथम वर्ष के छात्र हैं, जबकि मेरी पुत्री इंटर के द्वितीय वर्ष की छात्रा है। इस इतना ही फर्क है आप में और मेरी पुत्री मधुमिता में।’’
‘‘मधुमिता... मधुमिता...’’ आंखों को कुछ सिकोड़ते हुए शैल ने तब कुछ याद करने की चेष्टा की। फिर हठात वह बोल पड़ा। ‘‘कहीं वह गोरी-गोरी, छरहरी सी, कंटीले नाक-नक्श की, तेज-तर्रार, जो हॉकी के सेन्टर फारवर्ड की खिलाड़िन है और स्कूटर से कॉलेज आती-जाती है, वही लड़की तो नहीं महाशय जी?’’
‘‘हां...हां... वही लड़की। आप ने ठीक उसे पहचाना बरखुर्दार। वही मेरी पुत्री मधुमिता है। वह केवल हॉकी के सेन्टर फारवर्ड की नहीं, बल्कि क्रिकेट की भी खिलाड़िन है। ऑल राउन्डर है। सामने उछले गेंद को बल्ला घुमा कर यों पुल कर देती है कि मत पूछिये। फील्डर खिलाड़िनें बस ताकती भर रह जाती हैं और उनके देखते ही देखते बॉल सीमा रेखा के बाहर जा गिरता है। उसी तरह वह अच्छी स्पिन बॉलर भी है। उसकी गुगली से तो मेरा दावा है कि महान बल्लेबाज सचिन तेन्दुलकर भी चकमा खा जायेंगे।
तभी शैलजी की नजरों के सामने मधुमिता का चेहरा नाच उठा और वह चौंक सा पड़ा था, ’’अरे यह तो वही एक अनार सौ बीमार वाली लड़की है।’’ उसे लगा जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा हो। मधुमिता कब से उसकी नजरों में थी। वह तो स्कूल जीवन से ही चंचल किशोरियों का शिकार करना सीख चुका था। औरत के औरतपन से वह परिचित भी हो चुका था। परन्तु तब वह कॉलेज में नया-नया आया था। मात्र छह महीने ही तो हुए थे उसके कॉलेज आने में। अपना कोई गैंग भी नहीं बना पाया था अब तक। फिर कैसे उस बिदकी बछेड़ी का लगाम थामने की चेष्टा करता? लेकिन भगवान ने जैसे उसकी आरजू सुन ली थी अब। कुआं खुद चल कर प्यासे के पास आया था।
‘‘ओह महाशय जी, मैं समझ गया। बिल्कुल समझ गया। वैसे देखिये न, मैं भी कितना बड़ा अहमक हूं। तब से खडे़-खडे़ मैदान में आप से बातें कर रहा हूं।’’
‘‘बरखुर्दार, और उपाय ही क्या है ? यह कॉलेज परिसर है, घर नहीं...’’
‘‘घर नहीं है तो क्या हुआ? कॉलेज कैंटिन तो है। किबला वहीं तशरीफ ले चलें। वहीं चाय की चुस्कियों के साथ बातें होंगी।’’
‘‘इसके लिये बरखुर्दार को लाखों-लाख शुक्रिया। वैसे बरखुर्दार पूरी बातचीत के लिये एवं सलाह-मशविरे के लिये मैं जनाब को अपने गरीबखाने में संध्या समय आने की दावत देने की गुस्ताखी करना चाहता हूं। अगर आप वहां आ जायं तो बहुत अच्छा होगा। वहां न केवल हम और आप होंगे, बल्कि मेरी पुत्री मधुमिता, पुत्र राजेश और सावित्री देवी भी होंगी...’’
‘‘ये राजेश जी कौन, क्या करते हैं और फिर सावित्री देवी जी?’’
‘‘बरखुर्दार, मैं कह चुका न कि राजेश मेरा पुत्र है। आप शायद उसे नहीं जानते हैं। वह भी इसी कॉलेज में विज्ञान संकाय स्नातक के तीसरे वर्ष का छात्र है। प्रतिष्ठा में उसने कैमेस्ट्री ले रखी है। सच पूछिये तो मैंने काफी चेष्टा की उसके द्वारा कॉलेज छात्र यूनियन में जन-जागरण पार्टी का झंडा पुनः बुलंद कराने का, परन्तु एक तो वह सही ढंग से संयोजन कर नहीं पाता है, दूसरे वह अजय सिंह, जो वर्तमान में कॉलेज के छात्र यूनियन का अध्यक्ष है, उसकी मारक शक्ति के आगे टिक नहीं पाता है। इसीलिये मैं सफल नहीं हो पाया। वैसे भी वह पढ़ने-लिखने में अधिक और यूनियनबाजी में कम ध्यान देता है। बमुकाबले उसके मधुमिता में संयोजन की विधा काफी अच्छी है। मिलनसार तो वह इतनी है कि साल बीतते-बीतते उसने अपने अनेक साथी, दोस्त और सहेलियां बना ली है। बस केवल वर्तमान अध्यक्ष और सचिव की मारक क्षमता के आगे वह टिक नहीं पाती है, इसी से लाचार है। इसी से मेरा अनुमान है कि यदि मधुमिता के संयोजन के साथ आपकी मारक शक्ति मिल जाय तो किला फतह करने में जरा भी देर नहीं लगेगी। भला मेरा राजेश छरहरेपन और अपनी दुर्बलता के कारण मधुमिता को सहयोग कभी दे ही नहीं पाया। सावित्री मेरी पत्नी है।’’
तभी शैल की नजरों के सामने उस लीन-थीन, दुबले-पतले, सिंकिया पहलवान जैसे लम्बे युवक का चेहरा नाच गया। शैल ने कई बार उसे मधुमिता के साथ देखा था।
‘‘शायद मैने आप के राजेश को भी देखा है महाशय जी। कई बार वह आपकी पुत्री के साथ दीख पड़ा है।’’
‘‘शाम को वह आप को साथ ले जायेगा। बस आप हां तो करें।’’
यह शैल को कुछ नागवार सा लगने लगा था। उसने मन ही मन सोचा कि दाल-भात में मूसलचंद यह राजेश कहां से आ टपका। सावित्री से तो खैर सलट ले सकता हूं।
‘‘ अगर आप बुरा न मानें तो एक बात मैं कहना चाहूंगा महाशय जी। राजेश भैया के जैसे लोग काम बनाने की बजाय बिगाड़ते अधिक हैं। मारपीट की बात सुन कर ही ऐसे लोगों को पसीना आ जाता है। इस तरह के लोग प्रायः समझौतावादी हुआ करते हैं। वे लड़ने के बजाय घाटा और अपमान सह कर भी समझौता कर लेते हैं। ये लोग सेल्यूकश जैसे होते हैं, जिसने चंन्द्रगुप्त को अपनी पुत्री हेलेन को देकर भी समझौता कर लिया था। वैसे आप की मधुमिता जी ठीक हैं। मेरे लिये काफी हैं। राजेश भैया को पढ़-लिख कर स्कॉलर बनने दीजिये। रहे आप, तो आप का निर्देशन हमें चाहिये और आपकी श्रीमतीजी का सिर्फ आशीर्वाद। संध्या को आप राजेश जी को भेजने का कष्ट क्यों करेंगे? बस अपना पता छोड़ जाइये। मैं स्वयं ठीक समय पर आप के दौलतखाने में हाजिर रहूंगा।’’ शैल ने तब संतराम जी से कहा था।
इसके बाद अपना आइडेंटीटी कार्ड और अन्य जानकारी शैल को देकर संतराम विद्रोही जी चले गये थे।
शैल को अच्छी तरह याद है। उसके बाद उसका चैन जैसे छीन सा गया था। उसे लगने लगा कि आज का दिन शायद बड़ा हो गया है। सुबह लगभग ग्यारह बजे संतराम जी से बात हुई थी और उसे संध्या छह बजे संतराम जी के घर पर जाना था। इस बीच के यही छह-साढे़ छह घंटे का समय उसे लग रहा था जैसे युग से भी बड़ा हो गया हो। दोपहर का भोजन भी वह ठीक से नहीं कर पाया था। नजरों के सामने रह-रह कर मधुमिता का चेहरा नाच रहा था। मन ही मन वह सोच रहा था। उसके पिता एकदम मॉडर्न विचार के लगते हैं। पता नहीं मां कैसी होगी। वह भी जरूर मॉडर्न विचार की होगी। दकियानूसी और परंपरावादी विचार रखने वाली औरतें राजनीति के मंच पर क्या उतरेंगी? उन्हें तो छुई-मुई का रोग तबाह किये रहता है। खैर जो भी हो, लेकिन मधुमिता तो बिल्कुल खुले विचार की लगती है। उसको तो बस उसी से दिलचस्पी है। उसके माता-पिता और दुनियां-जहान से क्या लेना-देना?
हो संध्या... हो संध्या, आखिर संध्या हुई और शैल ठीक छह बजे संतराम जी के घर के सामने औटो रिक्शा से उतरा।
‘‘ वाह! एकदम पंक्चुअल टाइम पर। एक समर्पित नेता की यह पहली पहचान है। समय का पाबंद होना। इसके लिये मैं आपकी जितनी भी तारीफ करूं, थोड़ी ही होगी।’’ औटो रिक्शा से उतरते ही संतराम ने शैल को हाथों हाथ लिया था।
उसके बाद वे एक हॉलनुमा कमरे में आ बैठे थे। राजेश और मधुमिता वहां पहले से ही मौजूद थे। उनके आते ही एक आधुनिका और आ बैठी वहां। इसके बाद संतरामजी ने एक-एक कर सबका औपचारिक परिचय कराया। बाद में गरम-गरम तले पकौड़े तथा बिस्कुट, काजू वगैरह कई वेराइटी से सजे प्लेट एवं चाय सबके सामने आ गयी। सभी ने तब नाश्ता किया और चाय पी।
इसके बाद विचार-विमर्श शुरू हुआ। अपनी आदत के अनुसार संतराम ने लम्बा-चौड़ा भाषण देना शुरू किया। शैल कुछ बातें उनकी सुनता, कुछ नहीं। उसका ध्यान तो उनकी बातों से अधिक उनकी पुत्री मधुमिता पर केंद्रित था। लगभग आधा घंटे के बाद संतराम जी का कहना समाप्त हुआ।
‘‘ पिता जी आप तो हैं ही। फिर मां, मधु और ये सज्जन भी हैं। आप लोग जो निर्णय लेंगे वह बाद में मुझे बता दीजियेगा। मुझे जाने की इजाजत देते। जरूरी काम है।’’ संतराम जी का कहना समाप्त होते ही राजेश ने कहा।
‘‘ थोड़ी देर तो रुको राजेश।’’ तभी संतराम ने आपत्ति प्रकट की।
‘‘ ओह पिता जी। आप राजेश भैया को जाने दें। राजेश भैया सिर्फ पीछे हटना और समझौता करना जानते हैं। शक्ति परीक्षण में, पराक्रम दिखाने में उनका क्या काम?
वैसे आप और मां भी आश्वस्त रहें। शैलजी के बारे में मैं बहुत कुछ सुन चुकी हूं और अनुमान करती हूं कि हम दोनों मिल कर कॉलेज छात्र यूनियन के वर्तमान अध्यक्ष अजय सिंह और उपाध्यक्ष अवध सिन्हा पर बहुत भारी पड़ेंगे।’’ फिर शैल की ओर मुखातिब होकर बोली, ‘‘क्यों शैलजी, मैने कुछ अधिक कह दिया क्या?’’
‘‘ओह मधुमिता जी। जब आप ने शोले फिल्म के स्टाइल में अपने माता-पिता से इतना कह दिया तो कह दिया। आपके कथन को रंचमात्र भी झूठा नहीं होने दिया जायेगा।’’ शैल ने भी उसी स्टाइल में कहा था।
‘‘थैंक यू माई फ्रेंड। ‘‘कहती मधुमिता ने शैल की ओर एक हवाई चुम्बन उछाल दिया था।
शैल का रोम-रोम तब रोमांचित हो उठा था। उसे लगा जैसे मधुमिता के ये शब्द उसके कानों में अमृत घोल गये थे।
इसके बाद मीटिंग बरखास्त हो गयी थी। शैल ने अब भविष्य के ताने-बाने बुनने शुरू कर दिये थे।

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