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नई डिग्रियां (भाग-6)

शैल द्वारा इस तरह घर त्यागने से संतराम विद्रोही जी को अपार खुशी हुई। वैसे स्नातक की परीक्षा देने के बाद शैल घर चला आया था। कहने को तो वह संतराम से कह आया था कि वह उससे बराबर सम्पर्क रखेगा एवं उसकी जन-जागरण पार्टी को जहां भी रहेगा, वहां लोकप्रिय बनाता रहेगा। लेकिन संतराम डॉ देवेन्द्र नाथ तथा डॉ संध्या रानी को भी अच्छी तरह जानता था। दोनों प्राणी बड़े ही शिक्षाप्रेमी हैं। वे शैल को पढ़ने के लिए कहीं भी भेज सकते हैं। वहां शैल के नये-नये संगी-साथी होंगे। इसके बाद क्या उस पर उसका वही प्रभाव कायम रह सकेगा ? कतई नहीं। इसलिए संतराम जी कुछ चिन्तित थे। वैसे उन्होंने शैल को इसी साल होने वाले विधानसभा के चुनाव में पार्टी की ओर से उम्मीदवारी देने का पूरा भरोसा दिला रखा था। फिर भी वह सशंकित से ही थे। इसीलिए जब शैल पहुंचा और उसने बताया कि वह गृहत्याग कर आया है तो संतराम जी की खुशी का पारावार नहीं था।
‘‘बरखुर्दार, मेरे इस गरीबखाने को आप अपना ही घर समझें। पार्टी की ओर से आपको परवरिश भत्ता इतना मिलेगा कि आपको किसी चीज की कमी नहीं रह जाएगी। आप चाहें तो मेरे गरीबखाने में ही रह सकते हैं अथवा जहां आप रहते थे, वहां भी रह सकते हैं। उनका किराया प्रतिमाह पार्टी कोष से भुगतान होता रहेगा।’’ संतराम व्रिदोही ने उसे कहा।
शैैल आजाद पसंद आदमी था। अतः उसने किराए के मकान में रहना ही पसंद किया। उसे जीवन-यापन के लिए भी संतराम अथवा दूसरे पर निर्भर रहना अच्छा नहीं लगा। फिर भी जब तक कुछ दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाए, तब तक तो संतराम पर ही आश्रित रहना था।
कहावत है कि जहां चाह वहां राह। शैल ने बहुत जल्द कई रिश्वतखोर प्रखंड विकास पदाधिकारियों, अंचलाधिकारियों एवं इंजीनियरों तथा ठेकेदारों के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई छेड़ दी। इससे बचने के लिए उन अधिकारियों ने विकास कार्यो का ठेका शैल द्वारा अनुशंसित व्यक्तियों को ही देना शुरू किया। इसी तरह भूमि सुधार के कार्य भी उसकी अनुशंसा के अनुसार ही होने लगे थे। स्पष्ट था कि इन कार्यो में शैल को प्रचुर धन मिलने लगा था तथा संतराम पर उसकी निर्भरता खत्म हो गई थी। अब वह जन-जागरण पार्टी का एक दबंग नेता बन गया था।
इस तरह शैल भले ही पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी हो गया हो, परन्तु राजनीति वह भी आधुनिक राजनीति के एक से एक गुर सीखकर वह पारंगत हो चुका था। आजकल की राजनीति भी तो सन् उन्नीस सौ सैंतालीस ईस्वी के पहले वाली राजनीति नहीं रह गई है, जब देश के नौजवान कहते थे ‘‘सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है-देखना है जोर कितना, बाहुए कातिल में है’’ अथवा गाते थे, ‘‘ऐई बार विदा दाउ मां, घुरे आसी-हांसी-हांसी चढ़िबो फांसी, देखिबे भारतवासी’’। कोई सिद्धांत की राजनीति भी नहीं रह गई है। बस जनता को किसी तरह धर्म का, जाति का, अगड़े का, पिछड़े का, हरिजन का, ब्राह्मण का, राज्य का, क्षेत्र का अफीम खिलाओ और अपनी राजनीति की रोटी सेंक लो। बस येन-केन-प्रकारेण किसी तरह इस चुनाव प्रणाली की बहती गंगा में हाथ तो धो लो, फिर पांच साल तक कुछ कहने वाला कौन है ? सुबह-शाम गिरगिट जैसा रंग बदलो भी तो देखने वाला कौन है ? अरे जनता जनार्दन तो गाय है गाय। एक बार जो उनके थन से दूध निकल गया तो निकल गया, वह वापस आने वाला कहां है ? फिर जब जनता से दूध लेना होगा, तब देखा जाएगा। कोई न कोई नाटक तो तब करना ही पड़ेगा। घड़ियाली आंसू बहाना ही पड़ेगा। यदि धर्म, जाति, वर्ग, क्षेत्रीयता वगैरह का नशा हल्का पड़ रहा हो, तो फिल्मी हीरोइनों का, अक्खड़ता से डायलॉग बोलने वाले अथवा हीरोइनों के साथ पर्दे पर रेप सीन फिल्माने वाले हीरो कलाकारों का नशा जनता को पिलाना ही पड़ेगा। वैसे भी भारत का प्रजातंत्र बस सिर्फ नाम के लिए बहुमत का प्रजातंत्र है, बहुमत का राज है। असल में अल्पमत का शासन बहुमत पर है। सिवा राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के बाकी जितने भी चुनाव हमारे देश में होते हैं, एकदम दोषपूर्ण हैं। इन चुनावों में अल्पमत को ही प्रायः सर्वत्र विजयी घोषित किया जाता है। इन चुनावों में जीतने की कूटनीति भी बिल्कुल अलग है। समझ लीजिए लूडो के सांप-सीढ़ी का खेल है। अगर कहीं सीढ़ी पकड़ ली आपने, तो किला फतह करना कोई बड़ी बात नहीं है अथवा यदि दुर्भाग्यवश सांप के मुंह में पड़े तो किले के द्वार से गिरकर जमीं पर गिरने से कोई रोक नहीं सकता है। एक तो अपने देश में लगभग 50 प्रतिशत लोग ही मतदान करते हैं। इस 50 प्रतिशत में भी 10 से लेकर 20-25 प्रतिशत तक मतदान बूथ कैप्चरिंग द्वारा अथवा बोगस लोगों से कराया जाता है। खैर, जो भी हो, अब उस 50 प्रतिशत में मान लीजिए पांच मुख्य प्रतिस्पर्द्धी के बीच मतों का बंटवारा हुआ। एक को मिला 5 प्रतिशत दूसरे को मिला 7 प्रतिशत, तीसरे को मिला 10 प्रतिशत, चौथे को मिला 11 प्रतिशत, 2 प्रतिशत मत विभिन्न तरह के नाम मात्र के लिए प्रतिस्पर्धा में खड़े उम्मीदवारों को मिला। बाकी 15 प्रतिशत पांचवें मुख्य प्रतिस्पर्द्धी को मिल गया। बस वही पांचवां प्रतिस्पर्द्धी 15 प्रतिशत वैध-अवैध तरीके से मत प्राप्त कर विजयी घोषित हो जाता है। भारतीय जनतंत्र के इस हिसाब में वही 15 प्रतिशतए 100 प्रतिशत का बहुमत हो जाता है। मतलब उस 15 प्रतिशत में जनतांत्रिक ग्रेस (अनुदान) के रूप में और 36 प्रतिशत मत आ जुटते हैं और वह 100 प्रतिशत का बहुमत से विजयी प्रतिनिधि घोषित हो जाता है। इस तरह की व्यवस्था में बिना तिकड़मबाजी के कोई चुनाव जीत भी पाता है क्या ? फिर इस तरह की तिकड़मबाजी में शैल लगभग पारंगत हो चुका था। इसीलिए वह अब किसी पर निर्भर नहीं रह गया था।
इतना सब कुछ होने पर भी, नेता बनने के लिए उन सारे रजो-तमो गुण के होते हुए भी एक चीज की कमी तो शैल में फिर भी थी। कमी थी प्रचुर मात्रा में धन की, जिससे बड़ी-बड़ी सभाएं, बड़ी-बड़ी रैलियां की जा सके तथा हर प्रमुख क्षेत्र में कार्यालय खोले जा सकें, जिनके पास तेज गति से चलने वाले वाहन हों। पार्टी के प्रचार-प्रसार के लिए इन सबकी निहायत ही जरूरत रहती है। खैर, शैल के वे सारे गुण देखकर कुछ उद्योगपति उसकी ओर आकर्षित हुए। उन्होंने पहले सीधे शैल से बातचीत करनी चाही, परन्तु इसमें अनुभव नहीं रहने के कारण उसने संतराम की अगुवाई में उनसे बातचीत की। उनमें कुछ शर्तें तय हुईं। यों तो शैल एवं संतरामजी की जन-जागरण पार्टी को सत्ता में आने की, राज्य की आधा से अधिक सीटों में विजय की संभावना नहीं थी। यह भी संभावना क्षीण ही थी कि वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी, लेकिन इस बात की अपेक्षा की जा सकती थी कि सत्ता में उसकी कुछ भागीदारी हो सकती है। तो यदि ऐसा हुआ, तो उसके लिए शर्तें अलग तय हुई थी। परन्तु यदि सत्ता में भागीदारी न हुई और कुछ विधायक भर ही उसकी पार्टी सीमित रही, तो उसके लिए शर्र्तें अलग तय हुई। फिर यदि उसकी पार्टी के दो-चार भी विधायक नहीं हुए, तो शर्त अलग तय हुई। उन शर्तों पर कुछ उद्योगपतियों ने, जिन्हें आज की भाषा में उस पार्टी का फाइनेन्सर कहा जाता है, अपना धन उनके पीछे लगाना मंजूर किया।
इसके बाद तो जैसे संतराम विद्रोही सचमुच में एक विद्रोह ही बन बैठे थे। सबसे पहले उन्होंने अपनी पार्टी को लोकप्रिय बनाने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया। आज के जमाने में विज्ञापन एक ऐसा शै है, जिसका लेप चढ़ाकर घटिया से घटिया माल बाजार में ऊंची से ऊंची कीमत पर बेचा जा सकता है। फिर विज्ञापन का लेप चढ़ाने में मीडिया, प्रिंट मीडिया-सह-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सबसे अधिक कारगर है। यह दीगर बात है कि इस तरह का लेप चढ़ाकर प्रचार-प्रसार करने की कीमत वे बहुत अधिक लेते हैं। संतराम ने मीडियावालों को न केवल उनकी कीमत अदा की, वरन उनकी खुशामद भी हद से ज्यादा करनी शुरू कर दी थी। शैल तो एक सक्रिय सहयोगी के रूप में इन सब का अनुभव प्राप्त कर ही रहा था।
शैल ने तब ज्वलंत जन-समस्याओं के खिलाफ नुक्कड़ सभाओं से लेकर बड़ी-बड़ी सभाओं और रैलियों का तांता सा लगाना शुरू कर दिया था। कहने की जरूरत नहीं कि इन सभाओं और रैलियों का आयोजन कर शैल ने एक से एक कामयाबियां भी हासिल कर ली थी। कई जनविरोधी कानूनी प्रावधानों तक को भी निरस्त कराने में वह सफल होने लगा था।
जन-जागरण पार्टी की इन कामयाबियों को देखकर राज्य की सत्ताधारी एवं मुख्य विपक्षी पार्टी दोनों दांतो तले उंगली दबाने लगी थी। अंत में जन-जागरण पार्टी की इस बढ़ती लोकप्रियता से त्रस्त होकर मुख्य विपक्षी दल के राज्य प्रमुख श्रीधर स्वामी ने संतराम विद्रोही के पास चुनाव पूर्व ही गठबंधन करने का प्रस्ताव भेजा, जबकि सत्ताधारी दल के प्रमुख महेन्द्र किशोर ने पुनः शैल को किसी तरह साम-दाम-दंड-विभेद की कूटनीति के जरिये तोड़कर अपने दल में शामिल करने की पुरजोर कोशिश शुरू कर दी थी। इस संबंध में सुरेखा, उसकी सहेली माधुरी वर्मा और अनिल बर्णवाल ने भी उसके पास चक्कर लगाना शुरू कर दिया था। लेकिन शैल टस से मस नहीं हुआ। उधर मुख्य विपक्षी दल के साथ भी चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं हो पाया। श्रीधर स्वामी मात्र कुछ गिने-चुने लगभग 20-25 क्षेत्र ही जन-जागरण पार्टी को छोड़ने के लिए तैयार थे, जबकि जन-जागरण पार्टी राज्य की कम से कम आधे क्षेत्र की सीट छोड़ने पर ही राजी होना चाहती थी। फलतः उनके बीच भी चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं हो पाया और जन-जागरण पार्टी पार्टी अपने बूते ही चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गई थी।
अंत में चुनाव की घोषणा हो गई और हर पार्टी अपने-अपने उम्मीदवारों की सूची को अंतिम रूप देने में लग गई। संतराम विद्रोही एवं शैल ने भी अपने वरिष्ठ सहयोगियों के साथ राय-परामर्श कर एहतियात के तहत उन क्षेत्रों से ही चुनाव लड़ना ठीक समझा, जहां उनका प्रभाव कम से कम इतना हो कि जमानत जब्त न हो। फिर भी ना-ना करते हुए 65 क्षेत्रों से चुनाव लड़ने के लिए वे तैयार हो गए। इस बात को लेकर संतराम एवं शैल के बीच थोड़ी झिक-झिक भी हो गई थी, खासकर रजनी के संबंध में। रजनी की सांगठनिक क्षमता को देखकर शैल उसे एक क्षेत्र विशेष से टिकट देने के पक्ष में था, परन्तु संतराम ने उस क्षेत्र से रजनी को टिकट न देकर अपनी बेटी मधुमिता को टिकट दे दिया। शैल के कहने पर वह रजनी को एक ऐसे क्षेत्र से टिकट देना चाहते थे, जहां जन-जागरण पार्टी का कोई खास प्रभाव नहीं था। अतः रजनी ने उस क्षेत्र से टिकट लेने से इन्कार कर दिया। इसपर संतराम ने रजनी को आश्वासन दिया कि लोकसभा चुनाव के दिन भी अब अधिक नहीं रह गए हैं। लोकसभा के चुनाव में रजनी को इस क्षेत्र से अथवा अन्य क्षेत्र से सांसद का टिकट दिया जाएगा। रजनी इस पर मान गई थी।
समय पर चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई। सभी पार्टियों के उम्मीदवार एवं स्वतंत्र उम्मीदवारों ने भी नामजदगी के पर्चे दाखिल किए। पर्चो की जांच हुई। जांचोपरांत कुछ पर्चे रद्द हुए तो कुछ उम्मीदवारों ने अपने नाम वापस ले लिए। बाकी उम्मीदवार चुनाव की जंग में कूद पड़े।
इस क्रम में कुछ पार्टियों ने चुनावी गीतों के कैसेट बनाए। उन्हें जगह-जगह बजाकर प्रचार-प्रसार करना शुरू किया। शैल स्वयं गीतों की रचना करता था। उसने भी एक गीत रचा और उसे सबको सुनाया।
‘‘बरखुर्दार, क्यों न हम इस गीत को दो-चार अन्य गीतों के साथ मिलाकर एक कैसेट बना लें ?’’ गीत सुन कर खुश होते हुए संतराम ने कहा था।
‘‘नहीं महाशय जी। हम कैसेट नहीं बनाकर स्वयं समूह के रूप से गाएंगे। इसका प्रभाव मानसशास्त्र (साइकोलॉजी) के अनुसार जनगण पर दूसरी तरह से पड़ता है। समूह में लड़के और लड़कियां दोनों गाती हैं। लड़कियों के सुपर सेक्स का प्रभाव देखने-सुनने वाले युवाओं एवं अन्य पुरुषों पर पड़ता है, जबकि लड़कों का प्रभाव युवतियों एवं अन्य महिलाओं पर पड़ता है। वैसे भी कैसेट में तो कृत्रिमता की भरमार रहती है, जबकि प्रत्यक्ष गायन में कला का साक्षात् प्रदर्शन होता है। अतः हम इसे सामूहिक रूप में गाएंगे।’’ शैल ने कहा था।
शैल की बातें सबको पसंद आई। फिर तो साज के साथ गाने का रिहर्सल किया गया। रजनी और शैल के नेतृत्व में आठ लड़के-लड़कियां गाने लगे। गीत का एक पद शैल गाता, तो दूसरा पद रजनी गाती थी। बाकी में से तीन लड़के कहते ‘‘आपकी पार्टी जन-जागरण पार्टी’’ तो तत्क्षण उसके बाद तीनों लड़कियां ‘‘जन-जागरण पार्टी को वोट दो।’’ गीत यों था -
‘‘देखो आया चुनाव फिर, ऐ मजदूर-किसान
फिर न धोखा खाना भाई, रखना इतना ध्यान।।
‘‘आप की पार्टी जन-जागरण पार्टी
जन-जागरण पार्टी को-वोट दो’’
सत्ताधारी गाल बजाए, विपक्ष सब्जबाग दिखाए
रोजी-रोटी अन्न बिना, मचा है त्राहिमाम
फिर न धोखा खाना भाई, रखना इतना ध्यान।।
‘‘आपकी पार्टी जन-जागरण पार्टी
जन-जागरण पार्टी को-वोट दो।’’
महंगी बढ़ी है बेशुमार, कहर ढाता काला बाजार
भ्रष्टाचार का आलम ऐसा, मुश्किल में है जान
फिर न धोखा खाना भाई, रखना इतना ध्यान।।
‘‘आपकी पार्टी जन-जागरण पार्टी
जन-जागरण पार्टी को-वोट दो।’’
जन-जागरण पार्टी का वादा, पारदर्शी स्वच्छ प्रशासन सदा
कौन संरक्षक कौन है शोषक, कर लो अब पहचान
फिर न धोखा खाना भाई, रखना इतना ध्यान।।
‘‘आपकी पार्टी जन-जागरण पार्टी
जन-जागरण पार्टी को-वोट दो’’
गीत ने जैसी उम्मीद की जाती थी, वैसा ही प्रभाव लोगों पर डाला। गीत सुनने के लिए झुंड के झुंड लोग तुरंत जमा हो जाते थे। इस तरह शैल के युवा विंग ने कमाल ढाना शुरू किया।
इसके जवाब में अन्य पार्टियां जन साधारण का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए भाड़े पर कुछ तड़क-भड़क वाली फिल्मी हीरोइनों एवं टीवी कलाकारों को मंगाकर उनपर उनके ग्लैमर का जादू डालने की चेष्टा करने लगी, परन्तु शैल के युवा विंग के ग्लैमर के आगे उन हीरोइनों और टीवी कलाकारों के ग्लैमर एकदम फीके पड़ने लगे थे।
मीडियावाले भी इससे भारी असमंजस में पड़ गए थे। वे रोज-रोज नये सर्वेक्षण और नई-नई संभावनाएं प्रकाशित करने लगे थे। वैसे भी अपने देश के सर्वेक्षणों पर उतना विश्वास नहीं किया जा सकता है। यों तो कहा जाता है कि मीडिया प्रजातंत्र का चौथा स्तम्भ होता है, एक ऐसा दर्पण, जिसमें सब अपना चेहरा झांक सकते हैं। परन्तु अफसोस, पता नहीं क्यों, अपने देश का मीडिया इस तरह प्रदूषण से संक्रमित होता जा रहा है। वैसे न्यायपालिका एवं मीडिया की निष्पक्षता किसी भी देश के प्रजातंत्र की अच्छी सेहत की निशानी है। खैर जो हो, चुनाव की लड़ाई परवान चढ़ने लगी थी।
अंत में मतदान हुआ। मतगणना भी हुई। जन-जागरण पार्टी के 11 उम्मीदवार जीते। उनमें से संतराम विद्रोही, शैलेश कुमार शैल, मधुमिता तो जीत गई, परन्तु संतराम व्रिदोही की पत्नी सावित्री देवी तथा पुत्र राजेश हार गये । राजेश तो सुरेखा सेठ से बुरी तरह हारा था। संतराम ने यों राजेश के क्षेत्र में कई फिल्मी हस्तियों को, खासकर चुलबुली हीरोइनों को घुमाया भी, परन्तु उनके ग्लैमर से कोई फायदा राजेश को नहीं हुआ। सुरेखा के ग्लैमर, उसकी बांकी चितवन, कातिल अदाओं एवं मृदु मुस्कान के आगे भाड़े पर मंगाई गई हीरोइनें मार खा गई। सुरेखा थम्पिंग मेजोरिटी से राजेश को हराकर जीत गई थी।
यह सब तो हुआ, लेकिन जनता ने किसी भी दल को सरकार बनाने के लिए स्पष्ट मेजोरिटी नहीं दी थी। सत्ताधारी दल पहले ही बैसाखी के सहारे सरकार चला रहे थे। छोटी-छोटी दो पार्टियां उसके साथ थी। परन्तु इस बार उन दोनों पार्टियों का एक भी विधायक नहीं जीता था। सत्ताधारी दल को पहले पांच विधायक घटते थे, जिसकी पूर्त्ति उन दोनों छोटी-छोटी पार्टियों ने कर रखी थी, परन्तु इस बार नौ विधायक कम पड़ रहे थे। इधर राज्य के मुख्य विपक्षी दल जिसके सर्वेसर्वा श्रीधर स्वामी थे, उनको स्पष्ट बहुमत पाने के लिए 16 और विधायकों की जरूरत थी। इस बार जैसे निर्दलीय उम्मीदवारों की बारी थी। कुल मिलाकर दस निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे। इन निर्दलियों में से दो सत्ताधारी दल के पूर्व विधायक थे। सत्ताधारी दल ने उन्हें इस बार टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय रूप से लड़ कर जीते थे। छह निर्दलीय विधायक भी मुख्य विपक्षी दल के पूर्व विधायक थे। श्रीधर स्वामी ने उन्हें इस बार टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय के रूप में लड़कर जीते थे। दो विशुद्ध निर्दलीय विधायक थे। दो वामंपथी विधायक थे, जो न तो सत्ताधारी दल के पक्ष में थे और न मुख्य विपक्षी दल के पक्ष में।
सत्ताधारी दल ने तब जन-जागरण पार्टी के पास प्रस्ताव भेजकर सरकार के गठन में सहयोग मांगा। जन-जागरण पार्टी तो इसके लिए तैयार भी हुई परन्तु सत्ता में भागीदारी पर बात नहीं बनी। सत्ताधारी दल बस नाम मात्र के लिए जन-जागरण पार्टी को सत्ता में हिस्सेदारी देना चाहते थे। इससे ही नाराज होकर जन-जागरण पार्टी ने सहयोग देने से इन्कार कर दिया।
इधर मुख्य विपक्षी दल अपने पूर्व विधायकों को, जो पार्टी से विद्रोह कर निर्दलीय रूप से जीते थे, मनाने में सफल हो गया। इस तरह अब उन्हें मात्र दस विधायकों की कमी रह गई थी, जबकि जन-जागरण पार्टी के 11 विधायक थे। इसलिए सत्ताधारी दल के साथ वार्ता भंग होते ही मुख्य विपक्षी दल जन-जागरण पार्टी पर एक तरह से हावी हो गया। मुख्य विपक्षी दल सत्ता हथियाने के लिए जन-जागरण पार्टी की सभी शर्तों को मानने के लिए तैयार हो गया।
इसकी भनक ज्योंही सत्ताधारी दल को लगी, उसने भारी कीमत चुका दसों निर्दलीयों को अपने पक्ष में कर लिया और महामहिम राज्यपाल महोदय से समय लेकर उन विधायकों को उनके समक्ष उपस्थित कर दिया। उन दसों निर्दलीय विधायकों ने तब शपथपूर्वक सत्ताधारी दल को सहयोग देने का आश्वासन दिया। महामहिम राज्यपाल महोदय ने तब अच्छी तरह जांच-पड़ताल कर सत्ताधारी दल को सरकार गठन करने की मंजूरी दे दी तथा शपथग्रहण करने के सात-दिनों के अंदर सदन में बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया।
इस तरह भागा-भागी करते हुए किसी तरह सत्ताधारी दल की सरकार बन गई। शपथ ग्रहण हो गया। सदन में सरकार ने बहुमत भी सिद्ध कर लिया। लेकिन मंत्रियों के बीच विभाग के बंटवारा को लेकर सर-फुटौव्वल होने लगी थी। खासकर निर्दलीय मंत्रीगण तो मालदार विभागों के लिए लड़ने और रुठने लगे थे। बड़ी मुश्किल से तब उन्हें कुछ मालदार, तो कुछ साधारण विभाग देकर प्रबोधा गया। सरकार किसी तरह चल पड़ी।
इस बीच देवेन्द्र नाथ ने तो नहीं, परन्तु संध्या रानी ने कई बार शैल से घर आने का आग्रह किया, परन्तु शैल ने हर बार एक ही बात कही, ‘‘मां मैं समय पर अवश्य आ जाऊंगा।’’ इसपर संध्या रानी ने कहा कि वह खुद आकर उससे मिलने की इच्छुक है, तो उसके जवाब में शैल ने कहा था, ‘‘मां यहां आकर मुझे कमजोर न करें। कृपया मेरे संकल्पों से मुझे डिगाए नहीं। मैं बार-बार हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूं। वैसे मां, मैं प्रतिदिन सुबह उठकर आपका स्मरण कर आपके पैरों को छू लेता हूं। बस आप वहीं से मुझे सफल होने का आशीष देती रहें।’’
संध्या रानी के पास तब सिवाय यह कहने के कि वह उसे बराबर आशीष देती रहती है, और कोई दूसरा उपाय नहीं रह जाता था।
खैर सत्ताधारी दल की वह सरकार किसी तरह साल भर चली। इसके बाद उसके अंतर्विरोध इतने प्रबल हो उठे कि एक मंत्री दूसरे मंत्री को बेईमान, रिश्वतखोर और भ्रष्टाचारी कहने लगे। एक निर्दलीय मंत्री ने तो मुख्यमंत्री को ही भ्रष्टाचार के कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया था। मुख्यमंत्री भी बदले में उस निर्दलीय मंत्री को आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा कहने लगा था।
कुछ मीडियावालों ने तब मुख्यमंत्री से पूछा था, ‘‘महाशय, आप तो मुख्यमंत्री हैं और जब जानते हैं आपके मंत्रिमंडल का कोई मंत्री आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है तो उन्हें बरखास्त क्यों नहीं कर देते हैं ?’’
‘‘इसकी रिपोर्ट मैंने आलाकमान को भेज दी है। वहां से जैसा निर्देश आएगा, वैसा करूंगा ?’’
‘‘ मुख्यमंत्री आप हैं अथवा आपका आलाकमान ? क्या आप केवल एक मुखौटा भर हैं ?’’
मीडियावालों के इस प्रश्न का कोई जवाब न देकर तब मुख्यमंत्री आगे बढ़ गए थे।
सरकार उसके बाद एकदम गिरने-गिरने पर हो गई तो मुख्य विपक्षी दल पुनः सक्रिय हो उठा था। उसने पहले अत्यंत ही गोपनीय ढंग से एक बैठक जन-जागरण पार्टी के पदाधिकारियों के साथ की। मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष श्रीधर स्वामी ने कहा कि वह अपने दल के उन पूर्व छः विधायकों, जो अब निर्दलीय हैं तथा दो विशुद्ध निर्दलीय विधायकों से निरंतर सम्पर्क में हैं। उनका कहना है कि यदि जन-जागरण पार्टी सहयोग करने के लिए तैयार हो जाए तो वे झट पाला बदल देंगे। फिर तो अंधा क्या चाहे दो आंखें। जन-जागरण पार्टी के साथ पूर्व में ही समझौता हो चुका था। वह तो निर्दलीय बदल गए थे, इसलिए सरकार गठित नहीं कर पाए थे। अतः इस बार वे किसी तरह चूकना नहीं चाहते थे।
अंत में बड़े ही गोपनीय ढंग से सब कुछ तय कर लिया गया। मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री के अलावा सरकार में मुख्य विपक्षी दल, जन-जागरण पार्टी और निर्दलीय विधायकों की भागीदारी वगैरह सभी बातों पर समझौता हो गया। अवसर देखकर सीधी कार्रवाई करने की ठान ली गई।
तब विधानसभा का सत्र आहूत करने में सप्ताह भर ही समय बाकी था कि हठात निर्दलीय मंत्रियों ने अपना इस्तीफा मुख्यमंत्री को सौंप दिया। उन आठों निर्दलीय विधायकों ने महामहिम राज्यपाल महोदय के पास सदेह उपस्थित होकर सरकार से अपना समर्थन वापस लेने की घोषणा भी कर दी।
मुख्यमंत्री महेंद्र किशोर जी तब राज्य के दौरे पर थे। उस संध्या को एक ऐसे क्षेत्र में, जहां से कभी सत्ताधारी दल का न तो कोई विधायक जीता था और न कोई सांसद, वहां इस बार उनका नागरिक अभिनंदन होने वाला था। मतलब इस बार वह वहां अपने दल का झंडा गाड़ने के प्रयास में थे। परन्तु यह उनके नसीब में कहां था ? जैसे ही उनको यह खबर मिली, सब कार्यक्रम स्थगित कर वह दौड़े-दौड़े राजधानी की ओर भागे।
जब तक वह राजधानी पहुंचे, उन आठों निर्दलीय विधायकों ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर मंत्री पद से अपने-अपने इस्तीफे और सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर डाली थी। इसके बाद तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया दोनों एकदम सक्रिय हो उठे। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो कमाल ढाना शुुरू किया। वह एक-एक कर हर निर्दलीय विधायक के इंटरव्यू का सीधा प्रसारण करने लगा था।
उसके दूसरे दिन मुख्य विरोधी दल अपने विधायक दल के नेता श्रीधर स्वामी तथा उसके साथ जन-जागरण पार्टी के विधायक दल के नेता संतराम विद्रोही ने एक साथ महामहिम से भेंट कर महेंद्र किशोर सरकार को बर्खास्त करने अथवा सदन में बहुमत हासिल करने का निर्देश देने की मांग रख दी।
महामहिम राज्यपाल महोदय ने तब तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री महेंद्र किशोर को बुलाकर हफ्ते भर के अंदर विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया। इसके साथ ही सदन को आहूत करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई थी। फिर तो दोनों ओर से जबरदस्त रस्साकशी चलने लगी थी। सारा दारोमदार तो उन आठ निर्दलीय विधायक एवं मंत्रियों पर था। परन्तु आश्चर्य कि प्रेस कांफ्रेंस में घोषणा करने के बाद वे इस तरह गायब हो गए थे जैसे गधे के सिर से सींग गायब रहते हैं। वे एकदम भूमिगत हो गए। उनकी इस गुमशुदगी से सत्तापक्ष वाले विरोधी पक्ष पर आरोप लगाने लगे थे कि उन्होंने उन विधायकों का अपहरण कर रखा है, जबकि यही आरोप विरोधी पक्ष वाले सत्तापक्ष पर लगाने लगे थे। दोनों पक्ष उन आठों विधायकों को खोज निकालने की मांग करने लगे थे। ऐन वक्त समाचार पत्रों में उन आठों विधायकों का लिखित बयान छपा कि अपनी सुरक्षा के लिए वे स्वयं भूमिगत हो गए हैं और समय पर प्रकट होंगे। खैर, इस बयान के प्रकाशित होने के बाद आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला खत्म हुआ था।
अंत में समय पर सदन की बैठक हुई। बैठक के प्रथम दिन तो औपचारिकताएं होती रही तथा सदन में सत्ता पक्ष की ओर से एक पंक्ति का विश्वास प्रस्ताव रखा गया।
‘‘इस सदन को मंत्रिपरिषद् में विश्वास है।’’
इसपर चर्चा और मतदान के लिए दूसरा दिन रखा गया था।
दूसरे दिन सदन में इसपर गरमा-गरम चर्चा होने लगी थी। दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप लगने लगे थे। अब मत विभाजन का समय भी आ गया। परन्तु आश्चर्य कि वे आठों निर्दलीय विधायक सदन में उपस्थित नहीं हुए थे। सत्तापक्ष इससे काफी उत्साहित नजर आ रहा था।
मगर मत विभाजन की प्रक्रिया शुुरू होने ही वाली थी कि हठात वे आठों विधाायक सदन के अंदर आते दिख पड़े थे। उन्हें देख पूरा सदन एक बार सकते में आ गया था। सभी देखने लगे कि वे टेªजरी बेंच की ओर जाएंगे अथवा विरोधी बेंच की ओर। अंत में वे विरोधी बेंच की ओर बढ़ चले तो विरोध पक्ष के सभी सदस्यों ने मेज थपथपाकर उनका स्वागत किया।
उन आठों विधायकों के रुख को देखकर ही श्री महेन्द्र किशोर समझ गए कि बुरी तरह उनकी हार होगी। इसलिए उन्होंने एक चालाकी भरी चाल चल दी और कहा कि चूंकि विपक्ष द्वारा विधायकों की खरीद-फरोख्त की जा रही है, विधायकों की हॉर्स ट्रेडिंग हो रही है। इस हालत में जनता के हित में यह उचित होगा कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगे तथा राजनैतिक दल जनता से पुनः शासन के लिए जनादेश लें। इन परिस्थितियों को देखते हुए अब मैं इस सिफारिश के साथ कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जाए एवं समय पर पुनर्मतदान कराया जाए, महामहिम राज्यपाल महोदय को अपने मंत्रिमंडल का इस्तीफा सौंपने जा रहा हूं।’’
मुख्यमंत्री जी की इस घोषणा के बाद मत विभाजन का कोई औचित्य रह ही नहीं गया था और न सदन में अब कुछ होना था। अतः सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया था।
उधर मुख्यमंत्री का वह काफिला सदन से निकल कर सीधे महामहिम राज्यपाल के निवास की ओर बढ़ गया था। इधर विपक्षी दलों ने झट अपनी बैठकें की और उन्होंने भी महामहिम राज्यपाल महोदय के यहां एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर उनसे यह आग्रह करने का फैसला लिया कि वे राज्य में लोकप्रिय सरकार बनाने में सक्षम हैं।
इसके बाद तो जैसे महामहिम राज्यपाल जी का निवास अखाड़ा बन गया था। सत्ताधारी दल राष्ट्रपति शासन के लिए जोर डालने लगे थे। वे चाह रहे थे कि विधानसभा जल्द से जल्द भंग कर दी जाए, जबकि मुख्य विपक्षी दल 54 विधायकों के समर्थन का दावा कर रहा था और लोकप्रिय सरकार बनाने की अनुमति मांग रहा था। अंत में विपक्ष वालों ने अपने 54 विधायकों को सदेह महामहिम के सामने पेश कर दिया तथा सभी ने एक स्वर से अपने संयुक्त विधायक दल का, जिसमें मुख्य विपक्षी दल, जन-जागरण पार्टी और आठ निर्दलीय विधायक थे, उसका नेता श्रीधर स्वामी का समर्थन करने का पत्र लिखकर दिया। इस हालत में राज्यपाल महोदय के पास कोई उपाय नहीं रह गया, सिवा इसके कि वह श्रीधर स्वामी को लोकप्रिय सरकार के गठन करने का अवसर दें।
राजभवन से श्रीधर स्वामी को सरकार गठित करने का निर्देश मिल गया। शपथ ग्रहण तीसरे दिन होना था। इस आशय की विज्ञप्ति भी राजभवन से प्रेषित कर दी गई थी।
राजभवन की विज्ञप्ति के बाद गहमागहमी बढ़ गई। विपक्षियों के नवगठित संयुक्त विधायक दल की तत्काल बैठक हुई। वैसे श्रीधर स्वामी और संतराम चाहते थे कि पहले केवल वे दोनों ही मुख्यमंत्री एवं उप मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण कर लें। उसके बाद जब सदन में विश्वास मत हासिल हो जाएगा, तब मंत्रिपरिषद का विस्तार किया जाएगा। परन्तु अन्य विधायकों ने इसका पुरजोर विरोध किया और कहा कि सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद् का शपथग्रहण एक साथ ही होना चाहिए। यद्यपि श्रीधर स्वामी एवं संतराम विद्रोही ने अपना वीटो पावर इस्तेमाल करने की चेष्टा की, लेकिन जब देखा कि विधायकगण विद्रोह पर उतारू हैं तथा उनका भी हश्र उसी तरह हो सकता है, जिस तरह श्रीमती सोनिया गांधी का हुआ था, जो देश के प्रधानमंत्री पद का शपथ ग्रहण करने का आमंत्रण मिलने पर भी नहीं कर सकी थी। ऐसी स्थिति को देखते हुए उन्होंने भी अपनी सहमति दे दी कि पूरे मंत्रिपरिषद् का शपथग्रहण एक साथ ही होगा तथा संयुक्त विधायक दल में शामिल दलों से अपने-अपने दल की ओर से निर्धारित संख्या के अंदर नाम देने का आग्रह किया गया।
समझौते के अनुसार जन-जागरण पार्टी को तीन मंत्री पद और तीन बोर्ड अध्यक्ष का पद मिलना था। उसी तरह आठ निर्दलीय विधायकों द्वारा नवगठित आजाद विधायक दल को भी तीन मंत्री पद और तीन बोर्ड अध्यक्ष का पद मिलना था। बाकी मुख्यमंत्री सहित छः मंत्री पद तथा बाकी बचे बोर्ड अध्यक्ष पद मुख्य विपक्षी दल श्रीधर स्वामी के दल को मिलना तय था।
यों श्रीधर स्वामी ने अपने दल के मंत्रियों का नाम पहले ही तय कर लिया था। उसी तरह निर्दलीय विधायकगण भी मंत्री पद के लिए नाम तय कर चुके थे। उन्होंने लिखित रूप से अपने मंत्रियों के नाम भी दे दिए। परन्तु जन-जागरण पार्टी में सिवा उपमुख्यमंत्री के रूप में संतराम विद्रोही का नाम छोड़कर बाकी दो मंत्रियों का नाम तब तक तय ही नहीं हुआ था। किसी न किसी बहाने संतराम जी इसे टालते ही आए थे, जिससे दल के अंदर कुछ खुसुर-पुसुर भी होने लगी थी।
अंत में जन-जागरण पार्टी के 11 विधायकों की आपात बैठक हुई। उसमें संतराम विद्रोही जी को प्रस्ताव रखने के लिए कहा गया। संतराम ने तब कहा, ‘‘एक मंत्री पद तो मैं स्वयं रखूंगा ही। बाकी दो मंत्री पदों में से एक महिला कोटा के अंतर्गत मधुमिता को तथा तीसरा शुरू से ही जन-जागरण पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे अनिल कुमार शर्मा को देने का मेरा प्रस्ताव है।
‘‘फिर हमारे शैल भैया को क्या मिलेगा ? हम युवाओं के सर्वमान्य नेता तो शैल भैया ही हैं।’’ तभी एक साथ कई विधायकों ने संतराम को टोका।
‘‘ओह साथियों, शैलजी को अभी सरकार चलाने का पूरा अनुभव नहीं है। इसीलिए फिलहाल इन्हें कोई बोर्ड अध्यक्ष पद ही दूंगा।’’ संतराम ने सफाई दी।
‘‘और आपकी पुत्री मधुमिता जी को सरकार चलाने का पूरा अनुभव है, इसी से उनको मंत्री पद दे रहे हैं क्या ?’’ कई विधायक बिफर पड़े थे।
वे विधायक जानते थे कि अनिल कुमार शर्मा के साथ मधुमिता की शादी की बात गुप-चुप चल रही है। परन्तु मधुमिता के स्वच्छंद आचरण को देखते हुए अनिल कुमार पीछे हट रहा था। इसीलिए ही संतराम अनिल कुमार को मंत्री पद से उपकृत कर उसे पालतू बनाना चाह रहे थे। इस बाबत संतराम विद्रोही, उनकी पत्नी सावित्री देवी एवं मधुमिता के बीच गुप्त मंत्रणा भी हुई थी। मधुमिता ने अपनी पहली पसंद शैल को ही बतायी थी, परन्तु संतराम के अनुसार शैल को पटरी पर लाना बहुत कठिन था, जबकि अनिल कुमार उपकृत होने के बाद मधुमिता के अनेकं अवगुणों को नजरअंदाज करके भी उसे अपना लेने को तैयार हो जाते। मधुमिता फिर भी ना-नुकुर कर ही रही थी कि उसकी मां सावित्री देवी ने उसे समझाया।
‘‘अरी अनिल के साथ फेरे तो ले ले। फिर कौन आज के जमाने में तेरी स्वच्छंदता पर लगाम लगाने की हिमाकत करेगा ? दहेज विरोधी, घरेलू हिंसा से लेकर दफा 498ए और दफा 376 जैसे कानूनी ब्रह्मास्त्र आज नारियों के हाथ में हैं, जिसके सहारे आज एक साधारण ब्याहता भी अच्छे से अच्छे पति से उठक-बैठक करा सकती है, फिर तुम तो तुम ही हो। अरे कहां हम कह रहे हैं कि शैैल से लगाव तोड़ लो। सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि अनिल के साथ फेरे ले लो।’’
मां के तर्क पर मधुमिता ने अपना हथियार डाल दिया था। फिर भी वह चाहती थी कि शैल पर सुरेखा की छाया कभी नहीं पड़ने देगी, चाहे इसके लिए उसे जो भी करना पड़े। शैल कहीं भटक नहीं जाए, इसके लिए गाहे-बगाहे वह अनेक तरह के प्रोग्राम बनाती रहती और उसे संतुष्ट किए रहती थी।
खैर संतराम से कई विधायकों की बकझक भी हो गई।
‘‘सुन लीजिए अध्यक्षजी। यदि महिला मोर्चा की ओर से आप मधुमिता जी को मंत्री पद मात्र एक महिला विधायक होने के कारण दे रहे हैं, तो युवा मोर्चा की ओर से शैल भैया और सिर्फ शैल भैया को ही मंत्री पद देना पड़ेगा, वर्ना आप जानें और आपका काम जाने।’’ इतना कह कर वह युवा विधायक झटके से उठ खड़ा हो गया था।
उसके खड़ा होते ही और तीन युवा विधायक खड़े हो गए। तब यह देख शैल भी उठ खड़ा हुआ तथा पांचों बैठक छोड़ बाहर निकलने लगे।
‘‘देखिए-देखिए, आपलोग यह क्या कर रहे हैं? हमें इस पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए...’’ संतराम कहता रहा था, परन्तु वे पांचों उठकर बाहर चले गए थे।
मधुमिता अब छटपटा उठी थी। वह दौड़कर उनके पीछे आई।
‘‘सुनिए...सुनिए...’’ मधुमिता यह कहती उनके पीछे दौड़ी, परन्तु तब तक वे एक मारुति वैन में बैठ चुके थे।
‘‘सुनना-समझना कुछ नहीं रहा मधुमिताजी। अगर शैल भैया को मंत्री पद मिला तो हम साथ हैं, वर्ना एकदम अलग।’’ उसी विधायक ने कहा और गाड़ी स्टार्ट कर चल दिया।
वहां से वे पांचों शैल जी के आवास पर आ गए थे। वहां बैठकर वे आपस में मंत्रणा करने लगे कि क्या करेंगे? अभी वहां बैठे उन्हें आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि एक काला शीशा लगा मारुति वान उनके दरवाजे पर रुका। उससे एक बुर्काफरोश भद्र मुस्लिम महिला उतरी। उसे उतार गाड़ी दूर चली गई।
‘‘आप कौन? क्या काम है?’’ उन विधायकों के अंगरक्षकों में से एक ने उसे रोकते हुए पूछा।
‘‘मैं...मैं...शैल जी की फ्रेंड हूं। उनसे मिलना है। आप यह पुर्जी उन्हें देकर कहें कि मेरा मिलना जरूरी है।’’ उस मुस्लिम महिला ने कहा और एक पुर्जी उस अंगरक्षक को थमा दी।
अंगरक्षक ने उस पुर्जी को ले जाकर अंदर दिया और पूछा, ‘‘एक बुर्काफरोश मुस्लिम युवती आई है। अंदर आना चाहती है।
पुर्जी खोलकर तब उन्होंने देखा। उसपर सुरेखा सेठ लिखा हुआ था।
‘‘उसे अंदर आने दो।’’ शैल ने कहा तथा आपस में खुसुर-पुसुर करने लगे कि सुरेखा क्यों छद्मवेश में आई है ?
‘‘गुड इवनिंग टू एवरीबॉडी। देख लिया न शैलजी आपने? मैं पहले से ही कहती आ रही हूं कि संतराम आप लोगों को कोई महत्व नहीं देगा। वह फ्रॉड किस्म का आदमी है। सदा यूज एंड थ्रो की नीति पर चलता आया है।’’ आने के साथ बुर्का उतारकर सुरेखा ने कहना शुरू किया।
‘‘तो गोया, आप जले पर नमक छिड़कने आई हैं?’’ शैल ने पूछ ही लिया।
‘‘नो-नो-नो डियर-नेवर। मैं जले पर नमक छिड़कने नहीं मरहम लगाने आई हूं।’’
‘‘मरहम लगाने आई हैं? अच्छा, वह भला कैसे?’’
‘‘यदि आपलोग अभी भी हमारा साथ दें तो कुछ नहीं बिगड़ा है। कल ही राजभवन चलकर अपना समर्थन वापस ले लें। फिर तो श्रीधर स्वामी का शपथग्रहण हो ही नहीं सकेगा। इसके बाद हमारी पार्टी विधानसभा भंग नहीं कराकर सस्पेंड करा देगी तथा बाद में एक सम्मानजनक समझौता आपलोगों के साथ करके हम पुनः एक लोकप्रिय सरकार मुख्यमंत्री को बदल कर बना लेंगे।’’
‘‘लेकिन संख्या बल कैसे आएगा ? दूसरे दल-बदल का भी सवाल उठ खड़ा होगा ?’’
‘‘अजी आपकी पार्टी के 11 विधायक हैं, उनमें से पांच अगर कोई अलग दल कायम कर लेंगे तो कहां से उन पर दल बदल का मामला चलेगा। रही बात संख्या बल की, तो आठ निर्दलीय विधायकों ने समर्थन वापस लिया है। उनमें से दो हमारे दल के पूर्व विधायक ही थे। वे वापस हमारे खेमे में आने के लिए तैयार हैं, बाकी आपलोग पांच हुए। इस तरह हमें पूर्ण बहुमत मिल जाएगा, बल्कि आपको हम उपमुख्यमंत्री तक बना सकते हैं। यहां तो मंत्री पद के लिए मारामारी है। आपके बाकी चारों साथी तथा दो निर्दलीय विधायक भी यथोचित सम्मान पाएंगे। बस आप हां करें और कल राजभवन चल कर समर्थन वापस ले लें।’’
‘‘ठीक है मैडम, इस पर हम आपस में राय-मशविरा कर आप को कहेंगे।’’
‘‘ओके जरूर राय-परामर्श कर लीजिए और मुझसे इस नंबर पर सम्पर्क कीजिए।’’ कहती हुई सुरेखा ने अपना खास मोबाइल नंबर नोट करा दिया था।
इसके बाद सुरेखा ने मोबाइल से ड्राइवर को गाड़ी ले आने का निर्देश दिया और पुनः बुर्का पहन बाहर निकल पड़ी थी।
ऐन वक्त मधुमिता का मोबाइल बजने लगा था।
‘‘हल्लो-हल्लो शशि क्या समाचार है ?’’ मोबाइल को ऑन करते हुए मधुमिता ने पूछा था।
‘‘हल्लो दीदी, अभी कुछ देर पहले एक काले शीशे वाली मारुति वान में बुर्के में कोई मुस्लिम महिला आई थी। वह लगभग आधा घंटे तक अंदर उन पांचों से कुछ बातचीत करती रही तथा अभी अभी गई है।’’
‘‘काले शीशे वाली मारुति वान और बुर्केवाली मुस्लिम महिला ? पहचाना नहीं तुमने शशि ?’’
‘‘नहीं दीदी, पहचान तो उसे नहीं पाई।’’
‘‘उसके मारुति वान का नम्बर बता सकोगी ?’’
‘‘हां दीदी।’’ कहकर शशि ने उसका नम्बर बता दिया।
‘‘अरे ...रे वह अकेली गई है न ? कहीं शैल को साथ लेकर तो नहीं गई है?’’ तभी घबरा कर मधुमिता ने पूछा था।
‘‘नहीं दीदी, वह अकेली गई। लेकिन आप इस तरह घबरा क्यों गई ? कौन थी वह ?’’
‘‘अरी पगली, तूने पहचाना नहीं ? वह साली सेक्स एडिक्ट सुरेखा थी और वह मारुति वान उसका चलता-फिरता सुहागकक्ष था।’’
‘‘ओह, ऐ साली रे।’’ शशि ने कहा।
इसके बाद तो संतराम के खेमे में अफरातफरी मच गई। उधर श्रीधर स्वामी का भी तुरंत फोन आया।
‘‘हल्लो संतरामजी, अजी यह क्या कर रहे हैं ? पक्की खबर है कि आपके शैल जी सहित पांच विधायक महेंद्र किशोर के खेमे में जा रहे हैं। अजी रोकिए उन्हें, वर्ना अनर्थ हो जाएगा। आखिर एक मंत्री पद आप शैल जी को क्यों नहीं दे रहे हैं ? शैल जी की योग्यता मंत्री बनने की है। आप तुरंत उसे मंत्री पद देकर उन्हें महेंद्र किशोर के खेमे में जाने से रोकिए।’’ घबराए स्वर में श्रीधर स्वामी ने कहा था।
फिर तो पहले मोबाइल द्वारा शैल से सम्पर्क साधने की चेष्टा की गई। परन्तु उसके तीनों मोबाइल का स्विच ऑफ था। इसके बाद के बाकी चार विधायकों से भी सम्पर्क साधने की चेष्टा की गई तो उनके मोबाइल का भी स्विच ऑफ मिला। शशि से पूछा गया तो उसने खबर दी कि शैल सहित वे पांचों एक ही गाड़ी में बैठकर कहीं गए हैं। अब तो संतराम ने भी सर ठोक लिया। कहीं महेंद्र किशोर के पास तो वे पांचों नहीं जा पहुंचे हैं ?’’
इसके बाद न केवल संतराम, बल्कि मधुमिता तथा स्वयं श्रीधर स्वामी भी शहर का कोना-कोना छानने लगे थे, मगर उन पांचों का पता चल ही नहीं रहा था।
‘‘संतराम जी, लगता है आप की दुर्बुद्धि के कारण हम जीती हुई बाजी शायद हार जाएंगे।’’ श्रीधर स्वामी ने मोबाइल से सम्पर्क कर के संतराम से कहा था।
संतराम को काटो तो खून नहीं। वह पागलों की भांति उन्हें ढूंढ रहा था। बड़ी मुश्किल से एक अंगरक्षक पर उनकी नजर पड़ी तो पता चला कि वे पांचों अपने एक हितैषी के यहां सोए हैं। इसके बाद आनन-फानन में संतराम, मधुमिता और श्रीधर स्वामी भी वहां जा पहुंचे थे। उसी वक्त शैल का नाम मंत्रिपरिषद् से जोड़ा गया। उस पर न केवल संतराम और श्रीधर स्वामी के, बल्कि शैल का दस्तखत भी लिया गया तथा झट से उस वक्त आधी रात को ही मीडिया को यह लिस्ट जारी कर दी गई। राजभवन तो फैक्स किया ही जा चुका था। मीडिया वालों ने भी लेटन्यूज के कॉलम में इसे प्रकाशित कर दिया तथा कई न्यूज चैनलों में इसे दिखाया जाने लगा था।
खैर ना-हां करते तीसरे दिन श्रीधर स्वामी के नेतृत्व में सरकार का गठन हो गया था। इस मौके पर सभी मंत्रियों ने अपने सगे-सम्बन्धियों और हितैषियों को आमंत्रित किया परन्तु शैल ने किसी को आमंत्रित नहीं किया था। उसकी मां संध्या रानी ने फोन कर शैल को मंत्री पद के लिए चुने जाने पर बधाई भी दी थी और आने की इजाजत भी मांगी थी।
‘‘मां आप वहीं से मुझे आशीर्वाद दे देने की कृपा करें। अभी मैं आप को और पिता जी को बुलाने अथवा घर जाने लायक नहीं हुआ हूं। उस लायक होते ही मैं स्वयं आप लोगों को लेने के लिए आ जाऊंगा। वैसे यह मंत्री पद मुझे चार दिनों की चांदनी के समान लग रहा है। आप अभी आकर मुझे अपने संकल्पों से नहीं डिगाएं मां।’’ शैल ने कहा था।
इसके बाद उसकी मां निरुत्तर हो गई थी।
शपथग्रहण के बाद विभागों के बंटवारा में भी किच-किच होने लगी थी। शैल को एकदम साधारण सा विभाग दिया जा रहा था। उस पर शैल और उसके साथी फिर विद्रोही तेवर अपनाने लगे थे। हारकर ग्रामीण विकास विभाग शैल को देना पड़ा था। श्रीधर स्वामी सरकार ने सदन में बहुमत भी प्राप्त कर लिया था। सरकार इसके बाद चल पड़ी थी।
चलने को तो सरकार चलने लगी थी, परन्तु संतराम विद्रोही और शैल के बीच मनमुटाव की खाई चौड़ी होने लगी थी, जो सरकार के स्थायित्व को भी प्रभावित करने लगी थी।

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