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नई डिग्रियां (भाग-8)

विधानसभा भंग होने और राष्ट्रपति शासन लग जाने के बाद शैल खुलेआम अपनी पूरी शक्ति से छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा को मजबूत करने में लग गया था। उसने मोर्चा का विधिवत सम्मेलन कराया। राज्य भर के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उसमें अनेकानेक फैसले और संकल्प लिए गए। मोर्चा का विधिवत चुनाव भी कराया गया। मोर्चा का सर्वेसर्वा एवं अध्यक्ष शैलेश कुमार शैल यानी शैलजी चुने गए। सचिव पद पर रजनी मेहता चुनी गई। इसी तरह अन्य पदाधिकारियों एवं कार्यकारिणी समिति के सदस्यों का चुनाव भी किया गया। चुनाव करते वक्त ध्यान रखा गया कि हर वर्ग, हर वर्ण, हर धर्म, हर जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व हो एवं 50 प्रतिशत महिलाएं हों। इसी नियम के तहत शैलजी अध्यक्ष चुने गए, तो रजनी मेहता सचिव चुनी गई थी। चुनाव आयोग से मोर्चा को क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता दिए जाने की कार्रवाई करने पर जोर दिया गया। लोकसभा के चुनाव में अपने दो सांसदों को निर्वाचित कराकर एवं आवश्यक प्रतिशत वोट प्राप्त कर मोर्चा ने इसका भार अपनी सांसद श्रीमती राजश्री शर्मा के कंधों पर डाल दिया था।
इसके बाद मोर्चा मैदान में कूद पड़ा था। जन-समस्याओं को लेकर नुक्कड़ सभाओं का तांता लग गया। आए दिन सभाएं होने लगी। रैलियां भी निकाली जाने लगी। मोर्चा का प्रसार दिन-दूना रात चौगुनी की गति से होने लगा था। जगह-जगह प्रायः हर विधानसभा क्षेत्र में मोर्चा के कार्यालय खुलने लगे थे। नौजवानों के साथ-साथ नवयुवतियों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगी थी। नौजवान तो शैल पर जान छिड़कने लगे थे। नवयुवतियों में रजनी मेहता एवं राजश्री शर्मा ने जैसे लहर पैदा कर दी थी। मोर्चा की इस प्रसिद्धि को देखकर तब न केवल श्रीधर स्वामी, बल्कि महेंद्र किशोर भी चकित हो उठे थे। संतराम विद्रोही तो पछताने लगा था कि उसने हाथ आए हीरे को पहचानने में गलती कर दी। उसे पत्थर जान कर फेंक दिया। उसने शैल के साथ फिर से सम्पर्क जोड़ने की चेष्टा की, परन्तु शैल ने स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया।
संतराम के बाद श्रीधर स्वामी ने भी काफी चेष्टा की शैल के साथ कम से कम गठबंधन करने की, परन्तु सफल नहीं हुए। महेंद्र किशोर ने भी काफी चेष्टा की, शैल को अपने पक्ष में लाने की, कम से कम चुनाव पूर्व गठबंधन करने की, परन्तु शैल और उसके साथी-संगिनों ने आपस में गहन विचार-विमर्श कर इस बार ‘‘एकला चलो’’ के सिद्धांत को अपनाने का फैसला कर लिया था। अतः किसी भी दल के साथ न तो किसी प्रकार का गठबंधन और न किसी तरह से कोई तालमेल करना ही उन्हें मंजूर हुआ।
राजनैतिक सट्टेबाज भी शैल की इस बढ़ती प्रसिद्धि को पैनी नजरों से देख रहे थे। अब तक तो वे महेंद्र किशोर एवं श्रीधर स्वामी को ही फाइनेंस करते आए थे। कुछ समय संतराम विद्रोही को भी फाइनेंस किया। इन सट्टेबाजों का फाइनेंस भी कई तरह की शर्तो पर होता है। अगर राज्य में आप सरकार बनाने में कामयाब हुए, तो उस वक्त की शर्तें, यदि केवल विरोधी दल रहे तब की शर्तें, अथवा केवल कुछ विधायक ही जीते तब की शर्तें या एकदम फिसड्डी रहे तब की शर्तें अलग-अलग तय हो जाती हैं। इसके बाद वे धन्ना सेठ अपने दो नम्बर की कमाई को उस दल के पीछे लगाते हैं। ये राजनैतिक सट्टेबाज अपनी दो नम्बर की कमाई को एक नम्बर का जामा पहनाने एवं राज्य के आर्थिक स्रोतों का दोहन कर अपनी तिजोरी भरने की शर्तों पर ही फाइनेंस करते हैं। उनमें से कई सट्टेबाजों को लगा कि शैल राज्य में कोई गुल अवश्य खिलाएगा। सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भले ही यह अपने बलबूते सरकार नहीं बना सकता है। लेकिन इसके सहयोग के बिना सरकार शायद नहीं बनेगी। यों तो महेंद्र किशोर और श्रीधर स्वामी अपने दल की तीन चौथाई सीटों पर विजय की घोषणा जोरदार ढंग से कर रहे थे। संतराम भी उनके सुर में सुर मिलाकर इस बार जन-जागरण पार्टी की सरकार की भविष्यवाणी करते फिर रहे थे, परन्तु ये सट्टेबाज अच्छी तरह जानते थे कि किसी एक दल की सरकार बन ही नहीं सकती है। इसीलिए बड़ी पार्टियों के अलावा छोटी पार्टिर्यों की गतिविधियों पर भी ध्यान रखे हुए थे।
ऐन वक्त छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा को भी चुनाव आयोग द्वारा क्षेत्रीय दल की मान्यता मिल गई और उसे एक चिन्ह भी आवंटित कर दिया गया था। इसके बाद तो एक-दो करके कई सट्टेबाजों ने उससे सम्पर्क किया, परन्तु उसने अपने पुराने फाइनेंसर, जिसने विगत चुनाव में जन-जागरण पार्टी को आर्थिक मदद दी थी, उससे ही सम्पर्क किया। यों तो उस फाइनेंसर से भी बढ़कर कई फाइनेंसर उसे आर्थिक सहयोग देने के लिए तैयार थे, परन्तु अपनी शर्तों में वे राज्य के तमाम आर्थिक संसाधनों का क्रूर दोहन करना चाहते थे। इसीलिए शैल ने उनसे सहयोग नहीं लिया था।
फाइनेंसर का सहयोग मिलते ही शैल का प्रचार-प्रसार एकदम परवान चढ़ गया था। उसकी रैलियां एवं युवा-युवतियों का हुजूम उसके पीछे देखकर तो मीडियावालों को लगने लगा कि इस बार शैल का छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा राज्य में भारी उलट-फेर कर देगा। केन्द्र में सत्तासीन पार्टी भी इससे डर गई और राष्ट्रपति शासन की प्रथम छमाही उसने चुपचाप बीत जाने दी। राष्ट्रपति शासन का विस्तार अगले छः माह के लिए कर दिया गया था।
दरअसल, केन्द्र की सत्तासीन पार्टी चाहती थी कि वह राज्य में राष्ट्रपति शासन के दौरान कुछ लोकप्रिय कार्य करके इतनी लोकप्रियता हासिल कर ले कि चुनाव में उसे स्पष्ट बहुमत मिल जाए। इसीलिए उसने राष्ट्रपति शासन का विस्तार कर दिया था। शैल के छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा को भी इससे अच्छा अवसर मिला, जनहित की बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ने का।
यों तो चुनाव के वर्ष में सभी राजनैतिक पार्टियां सक्रिय हो उठती हैं। किसी न किसी विषय को लेकर सभा-सम्मेलन, धरना-प्रदर्शन करती हैं। लोगों से तरह-तरह के वादे करती है। उन्हें सब्जबाग दिखाती हैं। फिर उनके वोट लेकर ज्योंही जीत जाती हैं कि उन्हें ठेंगा दिखाना शुरू कर देती हैं। इस कारण जनता ने भी अब उनपर विश्वास करना छोड़ दिया है। सच पूछा जाए तो कुछ स्वार्थी जनों को छोड़कर बाकी जनता एक राष्ट्रीय कर्त्तव्य मानकर मतदान करती है वर्ना यदि उनकी बात मानें तो वे मतदान करना भी बेवकूफी समझती हैं। परन्तु लोगों ने देखा कि छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा उनमें से कुछ ज्यादा विश्वसनीय है। खासकर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में मोर्चा सदा जनता के साथ कंधा से कंधा मिलाकर लड़ता आया था।
वैसे अपने देश में भ्रष्टाचार की भी गजब कहानी है। हर कोई, चाहे व छोटे स्टेटस का हो या बड़े स्टेटस का, भ्रष्टाचार के खिलाफ जहर उगलता है और भ्रष्टाचार से वह पीड़ित भी है परन्तु यदि जरा-सा मौका मिला तो भ्रष्टाचार की बहती गंगा में डुबकी लगाने में जरा भी नहीं हिचकता है और न चूकता है।
सच पूछा जाए तो अपना देश भारत अब वह वैसा देश नहीं रह गया है, जिसका वर्णन ह्यूअनच्यांग और मेगास्थनीज सरीखे अनेक विदेशी भ्रमणकारियों ने अपने यात्रा वृत्तांत में किया है और न वैसा रह गया है, जहां सम्राट औरंगजेब जैसा घोर कट्टरवादी सम्प्रदायवादी शासक भी अपना गुजर-बसर, खाना-खोराक कुरान का तरजुमा करके करता था तथा खाने-पीने वगैरह व्यक्तिगत खर्च के लिए राजकोष से कुछ नहीं लेता था। उसकी जगह आज इस देश में मंत्री से लेकर संतरी और राज्य कर्मचारी तक राजकोष को अपना कोष समझने लगे हैं। राजकोष से राज्य की जनता का कुछ विकास हो, इसकी चिन्ता उन्हें कहां? वे तो देखते हैं कि राजकोष से उनका कितना विकास हुआ या और अधिक से अधिक कितना हो सकता है। फलतः देश के अनेक मुख्यमंत्रियों तथा प्रधानमंत्री से लेकर कई बड़ी हस्तियों पर गंभीर भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी के इल्जाम लग चुके हैं तथा कहीं न कहीं, किसी न किसी अदालत अथवा विभाग में उनका मामला विचाराधीन अथवा अनुसंधानाधीन हैं। यह भी एक खुला राज है कि जांच एजेंसियों एवं न्यायपालिका के विभिन्न न्यायालयों में चींटी की चाल से भी कम चाल में चलते इन मामलों में गंभीर से गंभीर आरोपों में किसी को कोई सजा नहीं होती। इसका कारण भी है। हमारे देश का कानून कहता है कि संदेह का लाभ अभियुक्त को मिलेगा तथा किसी भी निर्दोष को सजा नहीं मिलेगी, चाहे इसके लिए कितने भी दोषी क्यों न बरी हो जाएं।
मान लीजिए किसी की हत्या हो गई अथवा किसी के यहां लूट हो गई तो संदेह का लाभ पाकर अभियुक्त भी बरी हो सकता है। फिर जब इस सिद्धांत के तहत चोर-लुटेरे, अपराधी, हत्यारे भी बरी हो सकते हैं तो सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान इन भ्रष्टाचारियों को कोई सजा भी मिल सकती है क्या ? कभी नहीं। ये सारी प्रक्रियाएं बस दिखावा भर बनकर रह जाती हैं।
चुनाव लड़ने के तरीके और साधन भी अब बहुत बदल गए हैं। पहले पार्टियां अपने घोषणापत्र के आधार पर चुनाव लड़ती थीं। घोषणापत्र में उनकी नीति, सिद्धांतों का खुलासा होता था। उनकी प्राथमिकताएं वर्णित होती थी। परन्तु अब के घोषणापत्र तो सब्जबाग के पिटारे होते हैं। झूठे वादों से भरे होते हैं। पहले प्रचार भी लोगों के पास जाकर किया जाता था। कार्यकर्ताओं के बल पर चुनाव लड़ा जाता था। मगर अब प्रचार-प्रसार का पूरा भार मीडियावाले उठाते हैं। एक मोटी रकम लेकर मीडियावाले, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडियावाले तो इस तरह का विज्ञापनात्मक प्रचार करते हैं कि मत पूछिए, खोटा माल भी चांदी की चमक के आवरण से चांदी हो उठता है। प्रिंट मीडिया तो और जोर-शोर से लोगों का डेली इंटरव्यू और जीत का मनगढ़ंत अनुमान छापकर किसी भी पार्टी के पक्ष में दो-चार प्रतिशत का इजाफा कर ही देता है। फिर इतने ही प्रतिशत मत किसी पार्टी से खिसकने पर वह पार्टी आसमान से जमीन पर गिर सकती है अथवा इतने प्रतिशत मत के इजाफा होने से कोई भूलुंठित पार्टी सत्ता के शीर्ष पर आ सकती है। बाद में देश की जनता का भला हो या बुरा, इससे मीडियावालों का लेना-देना क्या रहता है ? उन्हें तो अपनी कमाई से मतलब है। इस तरह किसी व्यक्ति या पार्टी को अब चुनाव लड़ने के लिए मोटी रकम चाहिए। सच पूछा जाए, तो देश के कर्णधारों ने प्रजातंत्र को थैलीशाहों के पास गिरवी रख दिया है। तभी तो आज लगभग सभी पार्टियों को फाइनेंसर की जरूरत पड़ती है, यद्यपि चन्दा के रूप में धन्ना सेठों से एक मोटी रकम ले चुके होते हैं।
ऐसे वातावरण में शैल ने फूंक-फूंक कर कदम रखा। घोषणापत्र में वे ही वादे किए गए, जिन्हें वह पूरा कर सकता था। जनहित की लड़ाई लड़ने का पूरा भरोसा दिलाया था। वैसे तो उसके प्रचार का मुख्य भार अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के कंधे पर था, लेकिन फाइनेंसर के कहने पर मीडिया को भी प्रचार का भार सौंपा गया था।
खैर समय पर विधासभा के चुनाव की घोषणा हुई। आचार संहिता लागू हो चुकी थी। अब उम्मीदवारों के चुनने की बारी आई। हर पार्टी में उठा-पटक शुरू हो गई, लेकिन छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा बिल्कुल अनुशासित बना रहा। बस केवल एक ही जिच थी कि कुछ कार्यकर्ता पूरे चुनाव क्षेत्र से उम्मीदवार खड़ा करना चाहते थे, जबकि कुछ उन क्षेत्रों को अभी छोड़ देना चाहते थे, जहां मोर्चा का पूरा प्रभाव नहीं था। फाइनेंसर ने भी इस बात पर कुछ खास-खास कार्यकर्ताओं को साथ लेकर शैल से मीटिंग की और उन्होंने भी शक्ति केन्द्रित कर खास-खास क्षेत्रों से चुनाव लड़ने की सलाह दी।
‘‘महाशयगण, आप लोग इस तरह अधिक क्षेत्रों में विजयी हो सकते हैं परन्तु यदि आपने अपनी शक्ति को पूरे क्षेत्र में इस तरह बिखेर दिया, तो मेरा अनुमान है कि आप बहुत कम क्षेत्रों से जीत पाएंगे।’’ फाइनेंसर ने कहा था।
फाइनेंसर की बात शैल को भी जंच गई। उसने अपने समर्थकों को इस बारे में समझाया और केवल उन्हीं-उन्हीं क्षेत्रों में चुनाव लड़ना तय किया, जहां मोर्चा की लड़ाई उपहास जन्य नहीं हो। फिर भी आधा से अधिक क्षेत्रों में चुनाव लड़ना तय हुआ था।
समय पर चुनाव प्रक्रिया भी शुरू हो गई। उम्मीदवारों के मनोनयन पत्र दाखिल हुए। उनकी जांच हुई। कुछ छंट गए, बाकी में से कुछ ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। बाकी जो बचे, उनकी अंतिम सूची बनी। उनके नाम के आगे चुनाव चिन्ह आवंटित किया गया। इसके बाद रस्साकशी शुरू हो गई।
छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा के लोगों ने महसूस किया कि उनके नेता और एक तरह से मोर्चा के सर्वेसर्वा शैल लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हो चुके हैं। अतः उन्होंने अन्य मुद्दों के अलावा शैल की लोकप्रियता को भी भुनाने का कार्यक्रम बनाया। उन्होंने एक गीत बनाया, जिसे युवक एवं युवतियों ने मिलकर कोरस के रूप में नुक्कड़ सभाओं, बड़ी-बड़ी सभाओं, रैलियों के अलावा सड़कों गलियों में भी गाना शुरू किया। गीत का मुखड़ा था:-
‘‘ऐहो-ऐहो भैया, शैल भैया
डूबती नैया के खेवैया,
ऐहो शैल भैया’’
गीत के इस मुखड़े की पहली पंक्ति ‘‘ऐहो-ऐहो भैया, शैल भैया’’ तीन युवक मिलकर गाते और तुरंत उसके बाद तीन युवतियां मुखड़े की दूसरी पंक्ति ‘‘डूबती नैया के खेवैया’’ गाती। बाद में तीनों युवक और तीनों युवतियां एक साथ मुखड़े की आखिरी पंक्ति ‘‘ऐहो शैल भैया’’ गा उठती थी। उनके मधुर कंठ से यह कोरस निकलकर वातावरण को भाव-विभोर कर देती था। युवकों से श्रोता युवतियों पर विपरीत लिंग का प्रभाव पड़ता था, जबकि युवतियों से युवकों पर सुपर सेक्स का प्रभाव पड़ता था। इससे श्रोता युवक और युवतियां मोर्चा की ओर आकर्षित होती थीं।
मुखड़े की तरह अंतरा की भी एक लाइन युवक गाते, तो दूसरी लाइन युवतियां गाती थी, जिससे एक मधुर लय का सृजन होता था।
पूरा गीत था -
‘‘ऐहो-ऐहो भैया, शैल भैया
डूबती नैया के खेवैया,
ऐहो शैल भैया’’

देश में महंगी बेशुमार
चारों ओर हाहाकार
गरीब लोग के आज
कोई न बचवैया, ऐहो शैल भैया
ऐहो...ऐहो...
युवा हाथ में सौंपो कमान
शैल भैया के ऐलान
भ्रष्टाचार को बिना इसके
कोई न रोकवैया, ऐहो शैल भैया
ऐहो...ऐहो...
सब के देखलों बारी-बारी
अब की बारी शैल की पारी
शैल बिना अब कोई नहीं
बेड़ा पार लगैया, ऐहो शैल भैया
ऐहो...ऐहो...
यह गीत इतना प्रिय हो गया था कि सब इसे सुनने की मांग करने लगे थे। अंत में इसका ऑडियो-वीडियो कैसेट भी बनवा लिया गया था और जगह-जगह इसे दिखाने-सुनाने लगा था।
खैर, समय पर मतदान हुआ और मतगणना भी हुई। छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा के 12 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की, जबकि संतराम विद्रोही की जन-जागरण पार्टी की लुटिया डूब गई। सिर्फ संतराम विद्रोही को छोड़कर, उसके 32 उम्मीदवार बुरी तरह हार गए थे। संतराम का झटका श्रीधर स्वामी की पार्टी को भी लगा। गत विधानसभा में उनके 35 विधायक थे। इस बार उनके मात्र 31 विधायक ही जीते। इस तरह उनको भी चार सीट का घाटा लगा। महेंद्र किशोर जी की पार्टी को भी इतना छल-छù अपनाने के बाद भी एक सीट का घाटा लग ही गया था। गत विधानसभा में उनके 42 विधायक थे। इस बार उनके 41 उम्मीदवार ही जीत पाए थे। निर्दलीय भी गत विधानसभा में जहां दस थे, इस बार आठ ही जीत पाए थे। फायदा अगर शैल के छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा के साथ किसी अन्य दल को हुआ, तो वे वामपंथी थे। गत विधानसभा में उनके मात्र दो ही विधायक थे। लेकिन इस बार उनके सात उम्मीदवार जीते थे। इस तरह शैल के छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा और वामपंथियों ने कुल मिलाकर 12 एवं 5 यानी 17 सीट गत विधानसभा के झटक लिए थे।
खैर मतगणना खत्म हो गई। अब बारी सरकार के गठन की आई तो भारी मुश्किल। किसी भी दल अथवा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला ही नहीं था। चुनाव बाद गठबंधन का बाजार गर्म हो गया। उसमें भी मुश्किल। वामपंथियों के सात विधायक ऐसे थे जो बाकी सभी दलों को पूंजीवादी व्यवस्था की उपज मानते थे और किसी के साथ किसी तरह के गठबंधन के लिए तैयार ही नहीं थे।
कुछ लोगों ने तब यह सलाह भी दी थी कि वामपंथी विधायकों की संख्या को घटाकर बाकी विधायकों में बहुमत की संख्या तलाशकर सरकार का गठन कर लिया जाए। परन्तु राजभवन एवं संविधान विशेेषज्ञों ने इस तरह की सरकार को अल्पमत सरकार की संज्ञा दी और कहा कि इस तरह सरकार पर वामपंथी सदा हावी रहेंगे। वे जब चाहेंगे विपक्ष के साथ मिलकर सरकार को अपदस्थ कर सकते हैं। उनके हाथ में एक तरह से वीटो पावर होगा और इस वजह से वे सरकार को ब्लैकमेल भी कर सकते हैं। अंततः इस सलाह को सिरे से खारिज कर दिया गया था।
इस विकल्प को छोड़कर सरकार गठन की संभावना की तलाश होने लगी थी। महेंद्र किशोर की पार्टी सदन में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। इसीलिए उनका नैतिक कर्त्तव्य था कि वे सरकार के गठन का प्रयास करें।
‘‘हमारी पार्टी का हिसाब तो एकदम साफ है। हम 41 हुए और शैलेष कुमार शैल के छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा के 12 विधायक, कुल 53 हो गए। एकदम स्पष्ट बहुमत है। जबकि कई निर्दलीय हमारा साथ देने को तैयार हैं।’’ पत्रकारों के प्रश्न का जवाब देते हुए महेंद्र किशोर ने कहा था।
‘‘तो क्या शैलजी भी इसके लिए तैयार हैं? उनसे ऐसा आश्वासन आप को मिला है क्या ?’’
‘‘उनके साथ वार्ता चल रही है और वह मान भी जाएंगे।’’
‘‘लेकिन गत विधानसभा में वह संतराम और श्रीधर स्वामी के साथ थे ?’’
‘‘उनसे झगड़ा भी तो उनका हुआ था। इसे क्यों भूल जाते हैं’’ महेंद्र किशोर ने कहा था।
उधर पत्रकारों ने श्रीधर स्वामी को घेरा था।
‘‘शैल से झगड़कर तो संतराम ने अपनी लुटिया डूबा ली। गिरते-गिरते उसने आपकी पार्टी को भी चार सीट का झटका दे दिया। अब सरकार के गठन की बाबत आपकी क्या राय है ?’’
‘‘हमारी राय और क्या होगी ? हम सरकार का गठन करने जा रहे हैं।’’
‘‘वह कैसे ? संख्या बल कहां है आप के पास ?’’
‘‘आप जोड़िए। हमारी पार्टी के 31, शैल की पार्टी के 12 और निर्दलीय 8, कुल 51 हुए। एकदम स्पष्ट बहुमत। अब हमें और क्या चाहिए ?’’
‘‘लेकिन शैलजी से तो आप का छत्तीस का आंकड़ा चल रहा है ? उनको आप ने निकाल बाहर भी किया।’’
‘‘बिल्कुल गलत। शैलजी को मुझसे नहीं संतराम जी से झगड़ा था। इसीलिए मैंने संतराम जी की सीट कहां जोड़ी है। रही बात शैलजी को मंत्रिमंडल से हटाने की बात, तो मैंने उन्हें हटाया अथवा बर्खास्त कहां किया है? उन्होंने तो स्वयं ही इस्तीफा दे दिया था।’’
‘‘फिर भी वे रुठे हुए से हैं ?’’
‘‘ओह राजनीति में यह रुठना-मनाना चलता रहता है। शैलजी हमारे सहयोगी थे और रहेंगे।’’ श्रीधर स्वामी ने जोर देकर कहा था।
पत्रकारों ने तब शैलजी और उनके साथियों को घेरा था।
‘‘देखिए महाशय जी, उधर महेंद्र किशोर जी न सिर्फ कह रहे हैं, ताल ठोक कर दावा कर रहे हैं कि सरकार बनाने में आप उनका सहयोग कर रहे हैं। दूसरी ओर श्रीधर स्वामी भी दावा कर रहे हैं कि शैलजी हमारे साथ मिलकर लोकप्रिय सरकार बनाने में सहयोग देंगे। दोनों दावा करते हैं कि उनकी वार्ता आपके साथ चल रही है। इसीलिए आप से हम जानना चाहते हैं कि सच क्या है ?’’
‘‘दोनों ने ठीक कहा कि वे हमारे साथ वार्ता कर रहे हैं। वैसे राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न कोई स्थायी दुश्मन। हमारे लिए न तो महेंद्र किशोर जी अछूत हैं और न श्रीधर स्वामी जी। बस कुछ शर्तें हैं, जिन पर बात चल रही है। फिलहाल हमने कुछ तय नहीं किया है कि हम किसके साथ सहयोग कर सरकार बनाएंगे अथवा विपक्ष में बैठेंगे।’’ शैल ने गोल-मटोल जवाब दिया था।
अब तो अटकलों का बाजार एकदम गर्म हो उठा था। महेंद्र किशोर और श्रीधर स्वामी दोनों एक समान दावा कर रहे थे कि सरकार हम ही बनाने जा रहे हैं। खैर इन अटकलों का भी अंत हुआ। अंततः शैलजी महेंद्र किशोर के साथ राजभवन जाकर महामहिम को अपने मोर्चा के विधायकों का समर्थन पत्र सौंप आए। छः निर्दलीय विधायकों ने भी अपना समर्थन पत्र सौंपा। लेकिन इसकी गहरी कीमत महेंद्र किशोर की पार्टी को चुकानी पड़ी। समझौते के अनुसार शैलजी के अलावा दो यानी कुल तीन मंत्री पद और विधानसभाध्यक्ष का पद छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा का मिलना तय हुआ। इसके बाद माइंस बोर्ड का अध्यक्ष पद भी छात्र युवा संघर्ष मोर्चा के खाते में आया। खास नफा यह हुआ कि मोर्चा के दो सांसदों, जो गत लोकसभा चुनाव में जीते थे, उनमें से एक श्रीमती राजश्री शर्मा को केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री का पद दिया गया था। श्री महेंद्र किशोर की पार्टी की ही केन्द्र में सरकार है, इसीलिए इस शर्त को भी शैल ने मंजूर करा लिया था।
खैर, उसके बाद शपथ ग्रहण हुआ। विभागों के बंटवारा में कुछ किच-किच जरूर हुई, मगर शैलजी की पार्टी की ओर से जो मांगा गया और जैसा कि उनके साथ वादा किया गया था, वह पूरा करना ही पड़ा। शैल को उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री, सुश्री रजनी मेहता को राजस्व विभाग एवं श्री अनंत रविदास को ग्रामीण विकास विभाग देना ही पड़ा। श्री प्रेमचंद मिश्र को विधानसभा के अध्यक्ष का पद तथा जनाब अब्दुल रहमान को माइंस बोर्ड के अध्यक्ष का पद देना भी तय हो गया था।
अब श्री महेंद्र किशोर जी को सात दिनों के अंदर विश्वास मत हासिल करना था। फिर अटकलों का बाजार गर्म हो गया। बात फैली कि महेंद्र किशोर की पार्टी के लगभग आधे विधायक शैैल के साथ इस तरह के घुटनाटेकू समझौता के लिए नाराज हैं और वे महेंद्र किशोर का साथ छोड़ एक अलग दल बना कर श्रीधर स्वामी के साथ मिलकर सरकार बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस बाबत वे श्रीधर स्वामी द्वारा विधानसभा अध्यक्ष के प्रत्याशी को अपना वोट देकर अध्यक्ष बनाएंगे और विश्वास मत के दौरान महेंद्र किशोर सरकार का पतन कराकर श्रीधर स्वामी सरकार को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करेंगे।
इस अफवाह ने भारी अफरातफरी मचा दी। मीडियावालों ने तो इस अफवाह को और भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना शुरू किया। राज्य में एकदम असमंजस की स्थिति प्रकट हो गई। और तो और, तीसरे-चौथे दिन यह अफवाह भी फैली कि शैल के छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा के बाकी सात विधायक, जिन्हें कोई पद नहीं मिला, वे श्रीधर स्वामी के साथ मिलने वाले हैं। बाकी आठ निर्दलीय विधायक तथा संतराम भी श्रीधर स्वामी के साथ मिल जाएंगे। बस महेंद्र किशोर के दल में फूट पड़ने भर की देर है कि राज्य का नक्शा ही बदल जाएगा। संविधान विशेषज्ञों एवं विधि विशेषज्ञों ने तो पुनः राष्ट्रपति शासन की स्पष्ट घोषणा भी कर दी थी।
शैल यद्यपि यह जानता था कि यह कोरी अफवाह है, फिर भी अति विश्वस्त न होकर पैनी निगाहों से अपने विधायकों की चौकसी कर रहा था।
खैर, समय पर सदन आहूत हुआ। नवनिर्वाचित विधायकों ने शपथ ली। इसके बाद विधानसभा के अध्यक्ष का चुनाव हुआ। सत्ता पक्ष की ओर से प्रेमचंद मिश्र का नाम दिया गया, परन्तु लाख चेष्टा करने के बाद भी विपक्ष से कोई नाम पेश नहीं किया जा सका। अंततः श्री प्रेमचंद मिश्र सर्वसम्मति से विधानसभा के अध्यक्ष चुन लिए गए। एक मुश्किल पार हुई।
इसके बाद विश्वास मत का प्रस्ताव भी समय पर सदन में लाया गया और उसके पक्ष में एक मनानीत विधायक सहित 62 वोट तथा विरोध में 26 मत ही आए। सात वामपंथी विधायकों ने मतदान में भाग नहीं लिया, जबकि एक संतराम विद्रोही तथा तीन श्रीधर स्वामी के दल के कुल चार विधायक अनुपस्थित रहे।
इसके बाद राज्य में असमंजस की स्थिति एकदम समाप्त हो गई थी। श्री महेंद्र किशोर के साथ शैल ने भी तब राहत की सांस ली थी। अतः आज ही जीत का असली जश्न मनाया जा रहा था।
खुशी में उन्मत्त विधायकों ने शैल के आवास पर ही नृत्य का आयोजन कर डाला था। नर्तकी भी एकदम लहरा-लहरा कर नाच रही थी। शैल के साथ रजनी मेहता, अनंत रविदास, प्रेमचंद मिश्र एवं अब्दुल रहमान भी थे। श्रीमती राजश्री शर्मा तो गजब ढा रही थी। श्री नंदलाल वर्मा भी उपस्थित थे। बाकी सभी विधायक, मोर्चा के कार्यकर्तागण एवं पदाधिकारीगण भी उपस्थित थे।
ज्ब रात आधी हुई और एक-एक कर अन्य मंत्री और उसके साथी अपने-अपने आवास चले गए तो शैल भी आराम करने की नीयत से कमरे के अंदर आया था। परन्तु उसे आज अपनी मां और पिताजी की याद आ गई थी।
वह एकदम छटपटाने लगा था। यों तो मां ने कई बार फोन कर आने की इजाजत मांगी थी। जब वह विधायक चुना गया था तब। फिर बाद में शपथ ग्रहण के समय पर भी। परन्तु हर बार उसने मां को आने से मना कर दिया था। कारण, वह अपने पिता से वादा कर आया था कि वह कोई डिग्री हासिल करके ही घर आएगा।
इस पर वह एकदम शांत चित्त होकर सोचने लगा। कुछ ही देर बाद उसकी नजरें चमक उठी थी। उसे संतराम विद्रोही की कही गई वे बातें याद आ गई थीं।
‘‘बरखुर्दार, कोई एमएलए या एमपी होना किसी भी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रदत्त स्नातक की डिग्री से बढ़ कर है। उसी तरह केन्द्र या राज्य के मंत्रिमंडल में कोई मंत्री होना मास्टर की डिग्री से बढ़ कर है और किसी दल का सुप्रीमो सह कोई वरिष्ठ मंत्री केन्द्र या राज्य में होना तो किसी भी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रदत्त डॉक्टरेट की डिग्री से कई गुणा बढ़ कर है।’’
‘‘तो...तो...वह भी तो अपने दल छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा का संस्थापक, संयोजक, अध्यक्ष और सर्वेसर्वा है तथा अपने राज्य की सरकार का उपमुख्यमंत्री एवं वित्त मंत्री है....मतलब....मतलब....पिताजी....मां और राजकुमार भैया के डॉक्टरेट डिग्री से भी बढ़कर मेरी डिग्री है...जरूर...जरूर...तभी तो शपथ ग्रहण के बाद जब राजकुमार भैया भी, जो राज्य में वित्त सेक्रेटरी हैं, उससे मिलने और बधाई देने आए थे, तो उसने उन्हें अन्य कमरे में ले जाकर उनका चरण स्पर्श कर लिया था। उन्होंने तब कहा था... शैल, यहां मैं तुम्हारा बड़ा भाई नहीं, बल्कि तुम्हारे विभाग का सेक्रेटरी हूं। तेरा मातहत...तुम्हारे आदेश का पालन मुझे करना होगा...और इसपर ही उसने भैया के मुंह पर अपना हाथ रख दिया था...’’
हठात उसने अपने मोबाइल से मां के मोबाइल पर सम्पर्क साधा। रात के बारह से अधिक बज चुके थे। मां शायद सो गई थी। तीसरी बार जब रिंग हुआ था तो मां की आवाज आई थी, ‘‘शैल, इतनी रात को? ठीक तो हो न बेटा ?’’
‘‘बिल्कुल ठीक हूं मां। मैं कल नहीं, परसों घर आ रहा हूं। वैसे कल ही आता, परन्तु कल विधानसभा है। परसों सुबह दस बजते ही आ जाऊंगा।’’ शैल ने कहा।
‘‘सच बेटे ?’’
‘‘बिल्कुल सच मां।’’ और उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया था।

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