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उपन्यास वर्चस्व के कुछ अंश: लेखक बसंत शर्मा

बसंत शर्मा के 17 उपन्यासों में ‘वर्चस्व’ भी है। ‘वर्चस्व’ पति और पत्नी के रिश्ते और दोनों के पेशा में आने वाली कसमकस को दर्शाया गया है। इस उपन्यास में पति पत्नी पर अपना अधिकार जताना चाहता है, जबकि पत्नी अपने कर्तव्य व पेशा से समझौता नहीं करना चाहती है। पत्नी अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश है, जबकि पति जिला न्यायालय में सीजेएम हैं. इस उपन्यास के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है।

वर्चस्व

‘‘शीला, मैं कोई ऐरा-गैरा तो नहीं हूं। तेरा पति हूं और पति होने के अधिकार से कह रहा हूं। पति की आज्ञा का पालन करना हर भारतीय नारी का परम कर्तव्य है, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो। वैसे तुम एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार की बेटी हो और धर्मनिष्ठ परिवार की बहू हो। इसलिये आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि तुम पति की आज्ञा के अनुसार काम करोगी। समझ गयी न? यही हमारे तनावग्रस्त हुए पारस्परिक संबंधों के सुधरने की भी गारंटी होगी। आगे मैं उन्हें वचन दे चुका हूं। इसलिये अब मेरी प्रतिष्ठा का सवाल भी इससे जुड़ गया है। उम्मीद है मेरी प्रतिष्ठा को बचाओगी।’’
उसे लगा जैसे किसी ने निर्ममता से उसकी अंतरात्मा को मथ डाला हो। हूं हः पति की आज्ञा। क्या वह पति के उस आज्ञा का पालन कर पायेगी? क्या अपने जमीर को बेच पायेगी? अपने इमान को खराब करेगी? अथवा उस सौगंध को तोड़ पायेगी, जिसे इंसाफ की कुर्सी पर बैठती हुई उसने खोई है? नहीं... शायद एकदम नहीं। इंसाफ बेचना भगवान बेचने के समान है।......

देखो मुझ पर सुपर होने का रौब मत डालो। मृतका एक बदचलन औरत थी। उसका अवैध संबंध अपने पति के दबंग और धनिक दोस्त से था। परिवार की प्रतिष्ठा खतरे में पड़ गयी थी। इसलिये यदि इसे हत्या भी माना जाये तो भी ‘‘ऑनर किलिंग’’ कहा जायेगा यानी परिवार की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए हत्या।’’.....

बमौजिक उसके ही रविवार वह तैयार बैठी थी। स्टेनो साहब को डिक्टेशन देने के लिए कि तभी शैलेंद्र का वह फोन आया था। फोन क्या था। पुरुष का अहं था। अपने वर्चस्व का इजहार था और एक धमकी भी थी। धमकी थी तनावग्रस्त संबंधों के सुधार में अवरोध का।
भारी कसमकस में समय बीत रहा था। यों तो वह पहले से ही दृढ़ थी अपने विवेक से एकदम वही फैसला देगी जो होना चाहिए। बला से कोई शैलेंद्र के फुफेरे भाई का दोस्त हो या दुश्मन।....

इसके बाद शीला ने एक बार अदालत में उपस्थित सभी लोगों को निहारा और जजमेंट सुनाने लगी।
‘‘अभियुक्त महेशचंद्र सिंह, शार्दूल सिंह तथा सीता देवी एवं प्रेमा सिंह, आपलोग दफा 304बी भारतीय दंड विधान के तहत दहेज हत्या के दोषी पाये गये हैं और अभियुक्त गणेश चंद्र सिंह एवं गीता सिंह एवं यमुना सिंह, आपलोगों के खिलाफ कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं पाया गया है। अतः विश्वसनीय साक्ष्य के अभाव में आपलोगों को बाइज्जत बरी किया जाता है एवं जमानत के बंध से मुक्त किया जाता है। दोषी अभियुक्तों की सजा के प्वाइंट पर कल दूसरी बैठक में सुनवाई होगी।...

कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति कुछ तेज आवाज में कह रहा था, ‘‘भाई लोग अफवाह उड़ा दिये थे कि जज साहिबा को लाखों रुपये रिश्वत दी गयी है और वे अभियुक्तों को रिहा कर देंगी। लेकिन वाह री जज साहिबा। उनलोगों के मुख पर करारा तमाचा मारा है। भई दूध का दूध और पानी का पानी इंसाफ हुआ है।
इस तरह शैलेंद्र की अनावश्यक अतिशयता एवं पुरुष होने के अह के कारण, परंपरा से प्रचलित पति वह तथाकथित वर्चस्व जो उनको अपनी पत्नी के क्रियाकलापों में होना कहा जाता है, उसे तो शीला कल ही तोड़ चुकी थी। बाकी बचे पति का अपनी पत्नी के तन-मन पर तथाकथित एकाधिकार को भी शीला ने आज सुधा के स्टाइल में तोड़ दिया।......
शीघ्र प्रकाश्य

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