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शब्द-संधान // सुर्ख रहा है सुर्ख़ियों में // डा.सुरेन्द्र वर्मा

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इन्द्रधनुष के सात रंगों में सुर्ख रंग सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करने वाला रंग है। लाल रंग सामने हो और हम उससे उदासीन रहें ऐसा हो ही नहीं सकता। सुर्ख गुलाब, सुर्ख लब, सुर्ख चश्म, सुर्ख पोश, सुर्ख रू – छिपाए नहीं छिपते।
यों तो आजकल कई रंग के गुलाब उगा लिए जाते हैं किन्तु इस गुल की आब तो उसके सुर्ख गुलाबी रंग से ही है। हम अपना सम्मान और प्रेम दर्शाने के लिए गुलाब का ही फूल भेट करते हैं। यही तो वजह है कि वेलैंटाइन डे पर गुलाब की बिक्री में खासा इजाफा हो जाता है और उसकी कीमत भी बढ़ जाती है। होली के दिन सुर्ख रंग की अपनी ही धाक रहती है। अब तो खैर होली पर तरह तरह के रासायनिक रंगों का उपयोग होने लगा है, किन्तु एक समय था जब टेसू के फूलों से सुर्ख रंग बनाए जाते थे और उन्हीं से होली खेली जाती थी। श्यामर और टेसू का शुक्रिया कि आसपास होली के, वासंती मौसम, में जंगल तक हो जाते हैं सुर्ख लाल !
शायरों ने खूबसूरत औरतों के सुर्ख लबों, और उनकी आँखों के रतनारी सुर्ख डोरों की तारीफ़ में न जाने कितने कसीदे काढ़े हैं। विद्यापति का तो यह दोहा इतना मशहूर हुआ है कि बस पूछिए नहीं –
अमिय हलाहल मद भरे शेत श्याम तरनार
जीयत मरत झुकि झुकि परत जिहिं चितवहीँ इक बार !
सुर्ख रंग प्यार का रंग है और विवाह प्यार का उत्सव है। उस रोज़ विशेषकर दुल्हन सुर्ख-पोश होती है, उसका लाल जोड़ा देखते ही बनता है। सुर्ख-रू दूल्हा और दुलहन कितनी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, यह कोई कहने की बात नहीं है। सुर्ख-रू होना तेजस्वी होना है, सम्मानित होना है। इसके लिए बड़ी तपस्या करने होती है। सफल होने के लिए बड़ी बाधाएं पार करनी पड़ती हैं। कहा भी है –
सुर्ख-रू होता है इंसा ठोकरें खाने के बाद
रंग लाती है हिना पत्थर पे पिस जाने के बाद
धरती भी तो सुर्ख-रू है। खलील जिब्रान के हवाले से एक बहुत छोटी सी लघु लोक-कथा प्रचलित है जिसमें एक पेड़ आदमी से कहता है, “मेरी जड़ें सुर्ख धरती में गढ़ी हैं, मै तुम्हें अपने फल दूँगा।” आदमी ने कहा, “हम दोनों में कितनी समानता है। मेरी जड़ें भी सुर्ख धरती में गहरी गढ़ी हैं। यही बात तुम्हें मुझ पर अपने फल लुटाने की ताकत देती है और मुझे यह सिखाती है कि मैं तुम्हें धन्यवाद देकर उन्हें स्वीकार करूं !”
कुछ खबरें अखबारों की “सुर्खियाँ” बन जाती हैं। ये आम-फहम खबरें नहीं होतीं। थोड़ी अलग हटकर होती हैं। सामान्य, सहज व्यवहार कभी खबर नहीं बनता। जो असहज है, अनोखा है, अलग हट कर है, वही “सुर्ख़ियों” में आता है। उसी की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित होता है। आम आदमी तो कभी कभी ही अपनी किसी विशेष उपलब्धि या अपकार से ही सुर्ख़ियों में आ पाता है। सुबह-सवेरे अखबार आते ही, मंजरी गुप्ता पुरवार कहती हैं, --
ढूँढ़ती हैं निगाहें / सुर्खियाँ / राहजनी की / तख्ता पलट की।
बलात्कार की / भेदभाव की / काली सफ़ेद सुर्खियाँ /
जीत की हार की / उन्नत व्यापार की / दलितों के उत्थान की
महिलाओं की उपलब्धि की / समाज के निर्माण की /
वैज्ञानिक आविष्कार की ...
सुर्ख़ियों के बाज़ार में / खड़ा है इक्का दुक्का / आम आदमी
कभी इज्ज़त लुटवाने से / बेबस / कभी इज्ज़त लूटने से / बेशर्म
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डा. सुरेन्द्र वर्मा (मो.९६२१२२२७७८)
१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१

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