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रायगढ़ घराने के चार कीर्ति स्तंभ // लेखक:-डाँ. बलदेव

रोशन मोहिलरी की कलाकृति
राजा चक्रधर सिंह को कथक नृत्य के विकास के लिए योग्य शिष्यों की तलाश थी। अक्सर गणेशोत्सव के समय जो गम्मत या नाचा पार्टियां आती, उन्हीं में से बाल कलाकारों का चुनाव किया जाता था। बाकायदा इन बाल कलाकारों का खर्चा , आवास व्यवस्था समेत 25 रूपये माहवारी छात्रवृति भी दी जाती थी। दरबार में प्रथम नृत्य गुरु जगन्नाथ प्रसाद थे और उनका पहला शिष्य थे अनुजराम मालाकार । वे रायगढ़ के पूर्व नेपाल दरबार में नियुक्त थे। कालांतर में पं. कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतू महाराज एवं बर्मनलाल जी इस घराने से दीक्षित होकर चार कीर्ति स्तंभ के रुप में सामने आये।
पं. कार्तिकरामः-
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अपने जीवन में कथक.नृत्य का पर्यायवाची बन गये कार्तिकराम का जन्म चांपा-जांजगीर के एक छोटे से गाँव भंवरमाल में सन् 1910 में हुआ था। वे अपने चाचा माखनलाल की गम्मत नाचा पार्टि में बतौर बाल कलाकार के रुप में हिस्सा लिया करते थे। एक दफा गणेश मेला के दौरान परी के रूप में राजा चक्रधर सिंह ने उन्हें देख लिया। बालक जितना सुन्दर था उसका पद चालन उतना ही सघन। राजा साहब ने तुरंत उन्हें दरबार के लिए चुनकर खान-पान और 25 रूपये मासिक वजीफे की व्यवस्था कर दी।
कार्तिकराम की प्रारंभिक शिक्षा स्व. शिवनारायण, सुन्दरलाल, मोहनलाल और अच्छन महाराज के जरिये हुईं। उन्हें अच्छन महाराज से लास्य एवं शंभू महाराज से गति की तालीम मिली जबकि लच्छू महाराज से भाव पक्ष। कार्तिकराम जी को पहली प्रसिध्दि मिली इलाहाबाद म्यूजिक काँन्फेंस में वहां रायगढ़ दरबार की धूम मच गई, और कार्तिक समुचे देश में प्रसिद्ध हो गये। एक बार पुनः राजा साहब ने इलाहाबाद के उसी आखिर भारतीय संगीत समारोह मे कार्तिक राम के साथ कल्याणदास को मंच पर उतारा। स्वयं तबले पर संगति भी की। 1938 (रायगढ़ टाउन हॉल), 1940(जालंधर), 1940(मेरठ), 1942(बिहार बैजनाथ धाम), 1943(मिरजापुर), 1945(कराची), इटावा 1954 के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में अपना एवं अपने साथ रायगढ़ दरबार का नाम रोशन करने वाले कार्तिकराम जी ने देश का कोई ऐसा समारोह न था जहाँ दस्तक न दी हो।अपने समय के इस महान नर्तक को सन् 1978 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप एवं 1981 में शिखर सम्मान (भोपाल) समेत अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे।
पं. कल्याण दासः-
प्रो. कल्याण दास देश के महान नर्तकों में से एक थे। उनका जन्म जांजगीर जिला के नवापारा गांव में 10अक्टूबर, सन् 1921 को हुआ था। पिता कुशलदास महन्त स्वयं संगीतज्ञ थे। वे इसराज, सारंगी आदि बजाने में प्रवीण थे। कल्याण दास बचपन से ही नृत्य की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनकी आवाज. भी बड़ी मीठी थी। संयोग से एक बार राजा चक्रधर सिंह ने सांरगढ़ दरबार में बालक कल्याणदास को नाचते हुए देख लिया, वे इस कदर प्रभावित हुए कि अपने ससुर से कल्याण दास को मांग कर उसे शिष्य बना लिया। कल्याणदास दरबार में अनुजराम, कार्तिकराम, और फिरतू महाराज के बाद आए। उन्हें कथक नृत्य की शिक्षा पं. जयलाल महाराज, अच्छन महाराज(भाव), लच्छू महाराज(अभिनय),शंभू महाराज (तीन ताल एंव खूबसूरती), नारायण प्रसाद(एक ताल), आदि गुरुओं से मिली। ख्याल, टप्पा, ठुमरी और गजल की तालीम हाजी मोहम्मद से प्राप्त की और नत्थू खाँ से उन्होंने तबले की उच्च शिक्षा ली।
मुनीर खाँ, कादर बख्श और अहमद जान थिरकवा से तबले के कठिन कायदे सीखें। राजा साहब उन पर खास ध्यान दिया करते थे। नृत्य सम्राट कल्याणदास को पहली बार 1936 में इलाहाबाद म्यूजिक काँन्फेंस में उतारा गया।
इसके बाद मेरठ, बरेली1934, रायगढ़1942, दिल्ली1944, खैरागढ़ आदि के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों में भाग लेकर पुरस्कार प्राप्त किया। 1964 में वे इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ में प्रोफेसर नियुक्त हुए। मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग से शिखर सम्मान प्राप्त कल्याण दास ने अपने अंतिम दिनों में भाव नृत्य नाम का एक सुंदर ग्रंथ भी लिखा।
पं. बर्मनलाल:-
कथक नृत्य के शिखर पुरूष पं. बर्मनलाल स्वयंसिध्द कलाकार थे। उनका जन्म वर्तमान चांपा-जांजगीर जिला में 24 अप्रेल, सन् 1916 को हुआ था और देहावसान 86 वर्ष की उम्र में 2 फरवरी,2005 को । पिता अजुर्नलाल किसान थे। वे चिकारा (सारंगी) के कुशल वादक थे। जैजैपुर निवासी उनके मातुल शिवप्रसाद एवं मुकुतराम इस अंचल के चर्चित गम्मतकार थे। बर्मनलाल जी को संगीत की आरंभिक शिक्षा पिता एवं मातुल श्री से प्राप्त हुई। बचपन से नाचा के कलाकार थे। उनके मातुल श्री मुकुतराम और घुरमिनदास राजा भूपदेव सिंह तथा चक्रधर सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये दो कलाकार , जयपुर घराने के गुरु नारायण प्रसाद और सीताराम जी व्दारा पहली बार कथक में दीक्षित हुए। जब राजा चक्रधर सिंह गद्दीनशीन हुए तो उन्होंने मुकुतराम जी को दरबार में फिर से बुला लिया। उन्हीं के साथ मात्र आठ नौ वर्ष की उम्र में बर्मनलाल जी रायगढ़ आए। दुबारा वे 1929 में रायगढ़ आए। किशोर बर्मनलाल जी के नृत्य से प्रभावित हो कर राजा चक्रधर सिंह ने उन्हें नृत्य संगीत की ऊंची तालीम दिलाई। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने राजा चक्रधर सिंह के नेतृत्व में अपने गुरु भाईयों पं. कार्तिकराम , पं. कल्याण दास महन्त, पं. फिरतू महाराज के साथ साथ एक नूतन नृत्य शैली को जन्म दिया।
बर्मनलाल जी को कथक की शिक्षा जयपुर घराने के जयलाल महाराज, सीताराम, नारायण प्रसाद और लखनऊ घराने के उस्ताद अच्छन महाराज, लच्छू महाराज, शंभू महाराज से गणितकारी (ताल-वाद्य) और नारायण प्रसाद से गायन की शिक्षा मिली। प्रसिद्ध तबलावादक कादर बख्श और नत्थू खाँ से तबले की शिक्षा ली। बर्मनलाल जी उन भाग्यवान शिष्यों में थे, जिन्हें जयपुर और लखनऊ दोनों घरानों की शिक्षा मिली। बर्मनलाल जी रायगढ़ दरबार में सन् 1932 से 1947 तक नृत्य की कठिन साधना करते रहे। सन् 1936 में इलाहाबाद और कानपुर के सम्मेलनों में वे प्रथम आए। इससे राजा चक्रधर सिंह इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें केलो तट पर रहने के लिए पर्याप्त जगह दे दी और फिर बर्मनलाल जी रायगढ़ निवासी हो कर रह गए। राजा चक्रधर सिंह की चर्चा मात्र से वे रोमांचित हो जाते थे। वे होठों से ही बांसुरी का ऐसा मधुर स्वर निकालते थे कि लोग चकित हो जाते थे।
वे शायरी का भी शौक रखते थे। मौके पर शेर कह देना उनके लिए बाँए हाथ का खेल था। बर्मनलाल जी को सबसे पहले 26 जनवरी, 1954 को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश राज्य सरकार की ओर से माननीय मंडलोई जी ने उन्हें प्रशस्ति पत्र दे कर सम्मानित किया। गांधर्व महाविद्यालय देहली, प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद, श्रीराम संगीत महाविद्यालय रायपुर, भातखम्डे संगीत महाविद्यालय बिलासपुर और अनेक निजी तथा शासकीय सांस्कृतिक संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानों, पुरस्कारों से नवाजा था। पं. बर्मनलाल जी के चलनेे-फिरने की हर अदा में नृत्य संगीत प्रकट होता था।
पं. फिरतू महाराज:-
फिरतू महाराज का जन्म मेरे गाँव नरियरा के ही पास के गाँव बुंदेला मे 7जुलाई, 1921 को एक मंदिर के पुजारी के यहाँ हुआ था। रायगढ़ दरबार के हारमोनियम मास्टर मुकुतराम जी अक्सर अपने रिश्तेदार के यहाँ. बुंदेला जाते थे, और फिरतू महाराज के पिता त्रिभुवन दास वैष्णव के पास बैठते थे। उन्होंने रायगढ़ दरबार के लिए फिरतू और भाई घासी को उनके पिता से मांग लिया। फिरतू महाराज 1929 में मुकुतराम के साथ रायगढ़ आए। कार्तिकराम के बाद जयलाल महाराज के दूसरे शिष्य के रूप में फिरतू महाराज की शिक्षा शुरू हुई। पंडित जी इन दोनों बालकों को एक साथ नृत्य सिखलाते थे। पं. फिरतू महाराज ने जयलाल महाराज से तबले की भी शिक्षा ली। अच्छन महाराज, सीताराम जी और हरनारायण से गायन की, जगन्नाथ महाराज से भाव-नृत्य की, और मुहम्मद खाँ और छुट्टन भाई से गायन की तालीम पाई। फिरतू महाराज स्वतंत्र विचारों के कलाकार थे।
अपने गाँव में उन्होंने भागवतदास नाम के एक लड़के को कथक में इतना योग्य बना दिया कि वह बड़े मंचों में भी प्रशंसित और पुरस्कृत होने लगा। एक बार फिरतू महाराज ने स्वयं उसे रायगढ़ गणेशोत्सव की प्रतियोगिता में उतारा। पं. जयलाल महाराज वहाँ उपस्थित थे। राजा साहब भागवतदास का नृत्य देख कर चमत्कृत हो गए और सोचने लगे कि फिरतू दास इसी तरह लड़को को गाँव में तालीम देते रहे तो दरबार के नौनिहालों का क्या हाल होगा? राजा साहब ने उन्हें रायगढ़ में फिर नियुक्त करना चाहा , पर वे नहीं माने और सीधे गाँव लौट गए।.
उन्हें सबसे पहले 1933 में कार्तिकराम और जयकुमारी के साथ म्यूजिक काँन्फेंस आँफ इलाहाबाद (विश्वविद्यालय हाल) में उतारा गया।वहाँ उन्हें पुरस्कार एवं प्रमाण पत्र हासिल हुआ। दूसरी बार वे 1936 में इलाहाबाद के संगीत सम्मेलन में भाग लिए जहाँ राजा साहब स्वयं उपस्थित थे। तीसरी बार वे राजा चक्रधर सिंह के साथ कानपुर के संगीत सम्मेलन में गए। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में उन्होंने शिष्य तैयार किए। फिरतू महाराज में ताण्डव की प्रमुखता थी। वे पढ़न्त में माहिर थे।
पं. रामलाल:-
दरबार की प्रमुख हस्तियों में अनुजराम, कार्तिकराम, मुकुतराम, फिरतू दास, कल्याण दास और बर्मनलाल के बाद पं. कलागुरु रामलाल नृत्याचार्य का नम्बर आता है। रामलाल को नृत्य की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिता कार्तिकराम जी , फिर पं. जयलाल एवं दर्जनों गुरुओं से रायगढ़ दरबार में मिली थी। रामलाल जी का जन्म 6मार्च, 1936 को हुआ था। उनकी शैक्षणिक शिक्षा भले ही मिडिल स्कूल तक हो पाई , परन्तु उन्हें नृत्य संगीत की ऊंची शिक्षा मिली है, जो संगीत विद्यालयों में उस समय दुर्लभ थी। रामलाल जी ने 4 वर्ष की उम्र से नृत्य संगीत की शिक्षा 11वर्षों तक ली। कार्तिकराम जी के अनुसार वे उनके साथ करीब -करीब देश के सभी बड़े बड़े शहरों में कार्यक्रम दे चुके हैं।
रामलाल नृत्य के अलावा तबला वादन और ठुमरी गजल गायकी में विख्यात हैं। राजा साहब कृत निगाहें-फरहत और जोशे फरहत के सैकड़ों शेर उन्हें आज भी कण्ठस्थ हैं। म.प्र. के भोपाल स्थित चक्रधर नृत्य केन्द्र में लम्बी अवधि तक नृत्य गुरु के रूप में सेवाएं देने का सुदीर्घ अनुभव रहा है। आपके प्रमुख शिष्यों में सुचित्रा डाकवाले, अल्पना वाजपेयी, रुपाली वालिया, मोहिनी पूछवाले, विजया शर्मा, भूपेन्द्र बरेठ , दादूलाल, अनुराधा सिंह आदि है। 1995 में संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली से से पुरस्कृत एवं छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग का चक्रधर सम्मान 2006 प्राप्त हुए है।

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