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बाढ़ पर मौसमी-चिंतन से कुछ अधिक - राजकुमार कुम्भज

इस बरस फिर वही हुआ जिसकी आशंका जताई जा रही थी। पहाड़ों से लेकर मैदानों तक में बारिश और बाढ़ ने कोहराम मचा दिया। आधे से अधिक देश बाढ़ की चपेट में आ गया। बाढ़ से मरने वालों की गणना अभी जारी है, हालाँकि लाखों की संख्या में लोगों को बचा लिया गया है, जबकि प्रभावितों की संख्या भी लाखों में ही आँकी गई है। एक ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक इस बरस बाढ़ से हुई हानि का आँकड़ा हज़ारों करोड़ तक पहुँच चुका है, जिसके कि अभी और अधिक बढ़ने की संभावना व्यक्त की गई है। जन-हानि और धन-हानि की आँकड़ेबाज़ी का अंकगणित तो आता रहेगा, किन्तु सरकारी-मशीनरी की लापरवाही और आपदा-प्रबंधन की गैर-ज़िम्मेदारी से कैसे बचा जा सकता है ? क्या बाढ़ पर सिर्फ मौसमी-चिंतन से कुछ अधिक गंभीर सोच-विचार की ज़रूरत नहीं है ?
हमारे देश में वैसे तो बाढ़ एक सालाना उत्सवप्रिय-समस्या बनती जा रही है, लेकिन इस बार बाढ़ की तबाही ने समूची सदी का रिकॉर्ड ही तोड़ दिया है। एक तरफ हिमालय से निकलने वाली नदियों ने भीषण उत्पात मचाया, तो दूसरी तरफ इतर नदियों ने भी अपना गुस्सैल उफान बराबर बनाए रखा। बाढ़ नियंत्रण के तरीकों को विपदा-प्रबंधन में बदलने की बड़ी ज़रूरत के मद्देनज़र नदियों को बाँधने के लिए जिस बाँध-व्यवस्था को एक हद तक सामयिक-रक्षात्मक उपाय स्वीकार किया गया था, किन्तु देखिए कि अब की बार वही बाँध-व्यवस्था किस हद तक चकनाचूर हो गई है ?
बाढ़-निर्मित-आपदाओं के राहत कार्यों में व्याप्त, व्यापक भ्रष्टाचार भी अपनी विनाश-लीलाएँ दिखाने के लिए प्रतिष्ठित-प्रतिस्पर्धाओं में सक्रिय है। पीड़ितों की जान बचाना उनका ध्येय नहीं, बल्कि माल कमाना ही ध्येय हुआ जाता है। हद हुई जाती है कि बाढ़ का पानी बढ़ता जाता है और आदमी का पानी घटता जाता है। पता नहीं क्यों, सूखा और बाढ़ जैसे प्रकोप भी कुछ लोगों के लिए वसंतोत्सव बन जाते हैं।
सन् सत्तर के दशक में बाढ़ की समस्या का एक विस्तृत-अध्ययन राष्ट्रीय स्तर पर हुआ था, किन्तु वर्ष 1980 में आई उस अध्ययन-रिपोर्ट का उचित उपयोग ही नहीं किया गया। तमाम तटबंधों को धता बताते हुए बाढ़ का पानी आगे बढ़ने के लिए जहाँ-तहाँ से अपना रास्ता बनाने लगता है और रास्ता नहीं मिल पाने की सूरत में वह पानी बस्ती की ओर मुड़ने लगता है। इस वजह से हम पाते हैं कि सड़कें अवरूद्ध हो गईं, रेल-मार्ग टुट गए, राजमार्ग तहस-नहस हो गए, हवाई-अड्डे पानी में डूब गए। समूचे देश का यातायात बुरी तरह से प्रभावित हुआ। सवाल उठता है कि बांधों की ऊँचाई और मज़बूती, और अधिक बढ़ा देने से क्या बाढ़ के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है ? क्या इससे नदियों में गाद आने की समस्या से मुक्ति मिल जाएगी ? नदियों में पहले से जमा गाद का ऊपर उठना कैसे बंद हो सकता है ? इस बात की गारंटी कौन दे सकता है कि ऊँचे से ऊँचा और मज़बूत से मज़बूत बांध कभी भी नहीं टूटेगा ? फिर एक सवाल यह भी उठता है कि मॉनसून की अनिश्चिंतता से अभी तक हमने सीखा क्या है ?
मॉनसून की अनिश्चिंतता के कारण तकरीबन पचपन फीसदी असिंचित भूमिधारक किसान पहले से ही मुसीबतें झेल रहे थे, लेकिन बाढ़ की वज़ह से अब शेष बच रहे पैंतालिस फीसदी कृषक भी संकट में आ गए हैं। ज़ाहिर है कि परंपरागत-तौर से की जा रही खेती-किसानी में कुछ ज़रूरी परिवर्तन किए जाने चाहिए। ज़ाहिर है कि बहु-फसली-व्यवस्था अपनाते हुए ड्रिप और स्प्रिंकलर जैसी इज़राइली तकनीक एडॉप्ट करना चाहिए, जिसमें कम पानी का बेहतर इस्तेमाल होता है। ज़ाहिर है कि बाढ़ एक कलंक है।
शहरीकरण की अंधी दौड़ से पहले बाढ़ को एक ग्रामीण समस्या ही माना जाता था; क्योंकि ग्रामीण जानते थे कि बाढ़ कब व कैसे आएगी और कैसे उससे निजात पाना है ? तब यह तय था कि अधिक पानी आएगा, तो दो-चार दिनों में बह निकलेगा और खेतों के लिए ताज़ा मिट्टी सहज ही उपलब्ध हो जाएगी। ताल-तलैया भर जाएँगे, कुएँ में पानी की आवक बढ़ जाएगी और खेतों की सिंचाई हो जाने के बाद बाढ़ का अतिरिक्त पानी बेहद ही साधारण तरीकों से आगे बढ़ जाएगा। बाढ़ तब जीवन-पद्धति में गहरे तक शामिल थी; क्योंकि ग्रामीण जन-जीवन में बाढ़ की जल-निकासी का बेहतर प्रबंधन सदैव उपलब्ध था, किन्तु अब दो दिन की बाढ़, दो माह तक अपने खेल दिखाती रहती है। यही नहीं बाढ़ का क्षेत्रफल भी निरंतर बढ़ता जा रहा है, जो कि ग्रामीण -क्षेत्र तक सीमित न रहकर शहरी-क्षेत्र के लिए भी गंभीर समस्या बनता जा रहा है।
बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए बांध बांधने से ज़्यादा ज़रूरी है कि बाढ़ के पानी की निकासी पर ध्यान दिया जाए। पानी को अकारण ही रोकने से विकास नहीं, विनाश की ही संभावना अधिक बनती है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर एक जल-निकास आयोग का गठन किया जा सकता है, जो सभी राज्यों के जल-निकासी-प्रबंधन की ज़िम्मेदारी निभाए। जल-निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं होने की वज़ह से भी देश को हर बरस बाढ़ का सामना करना पड़ता है। जल-निकासी का पर्याप्त-प्रबंधन हो जाने पर बहुत संभव है कि किसी हद तक बाढ़-नियंत्रण की सफलता हाथ लग जाए।
अन्यथा नहीं है कि देश के विस्तृत होते जाते ढांचागत विकास में सर्वाधिक अनदेखी जल-निकासी की ही हुई है। देशभर में बनाए गए नेशनल हाई-वे और फ्लाई-ओवर इस दुर्घटना के उत्तम उदाहरण कहे जा सकते हैं। ये तमाम हाई-वे और फ्लाई-ओवर गाँवों के ज़मीनी स्तर से ऊपर उठाकर ही बनाए गए हैं, जिनसे स्वाभाविक-तौर पर पानी का प्राकृतिक बहाव बाधित होता है। इसी वज़ह से कई-कई राज्यों के कई-कई गाँव जल-मग्न हो जाने को अभिशप्त हो गए हैं। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगर मात्र घंटे-दो घंटे की बारिश होते ही ठप्प हो जाते हैं। वर्ष 2005 के बाद से मुम्बई लगातार किसी न किसी तरह से डूबने की स्थिति में आ जाता है। तब नौ सौ मिलीमीटर बारिश में तकरीबन साढ़े चार सौ लोगों की मौत हो गई थी। उत्तराखंड में वर्ष 2013 की त्रासदी और श्रीनगर में वर्ष 2014 के भयंकर विनाशक-दृश्य आज भी डरा देने के लिए पर्याप्त उदाहरण कहे जा सकते हैं।
वर्ष 2014 की कश्मीर में आई बाढ़ पर पंद्रह अरब डॉलर ख़र्च हो गए थे। यहाँ तक कि उसी बरस आए हुदहुद चक्रवात की भरपाई पर भी हमारे ग्यारह अरब डॉलर स्वाहा हो गए थे। इस तरह से हम देखते हैं और पाते हैं कि तमाम दुनिया के साथ-साथ भारत भी जलवायु-परिवर्तन की परेशानी में फंसा है, और जलवायु-परिवर्तन की यह परेशानी हमें प्रतिवर्ष दस से पंद्रह अरब डॉलर की चोट पहुँचा रही है।
प्रकृति-विज्ञान के प्रति मानवीय-नासमझी ने अभी तक तो मनुष्य को असफल और असभ्य ही साबित किया है। विकासवाद के परिप्रेक्ष्य में बहुविध भुला ही दिया गया है कि हमारी यह पृथ्वी करोड़ों वर्षों के प्राकृतिक-मंथन का अमूल्य उपहार है, जिसे हमने पिछले मात्र सौ बरस के विकास में मटियामेट कर दिया है। जल, जंगल, ज़मीन और वायु के समन्वय से ही प्रकृति का नियंत्रण संभव हो सका है। इनके रिश्ते बेहद महीन अैर बेहतर होने पर ही पृथ्वी की प्रकृति का बेहतर प्रमाण-पत्र बनता है। अगर इनमें से किसी एक को थोड़ा-सा भी धक्का लगता है, तो दूसरा भी स्वतः ही प्रभावित हो जाता है। हालाँकि करोड़ों वर्षों के इस प्राकृतिक-संतुलन को यूँ ही मिटा देना सहज-संभव नहीं है, किन्तु इससे की गई छेड़छाड़ के बाद उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभावों को समझने का सही-सही वक्त आ चुका है; क्योंकि इस प्राकृतिक-पृथ्वी की समाप्ति से पहले मनुष्य जीवन की पारिस्थितिक-संभावनाएँ ही समाप्त हो जाएँगी।
मनुष्य जीवन की पारिस्थितिक-संभावनाएँ अब जलवायु-परिवर्तन से ही संभवतः अधिक सुनिश्चित होने लगी हैं। जलवायु-परिवर्तन के कारण वर्ष 2020 से इस सदी के अंत तक कृषि-उत्पादकता के प्रभावित होने की गंभीर संभावना व्यक्त की गई है, किन्तु यदि जलवायु-परिवर्तन के मद्देनज़र कृषि-कार्य का प्रारूप परिवर्तित कर दिया जाए, तो वर्ष 2021 के बाद से कृषि-पैदावर में दस से चालीस फीसदी तक की वृद्धि जरा भी असंभव नहीं है।
सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग भी एकाधिक बार चुनौतीपूर्ण लहजे में दुनिया को ललकार चुके हैं कि इसी सदी के अंत तक यह पृथ्वी हमारे रहने लायक नहीं रह जाएगी और हमें अपने लिए किसी दूसरी पृथ्वी की तलाश करना होगी। ज़ाहिर है कि बाढ़ का प्रकोप दुनिया के अंत का एक प्रमुख कारण साबित होगा, जबकि दूसरी तरफ तीसरा विश्व-युद्ध, अगर हुआ तो, पीने के पानी के लिए ही होगा। अतः निवेदन यही बनता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ न करते हुए ही विकास को संभव किया जाना चाहिए और दोहन के साथ-साथ पुनर्जीवन पर भी अत्यधिक ज़ोर दिया जाना चाहिए, ताकि मौसम-परिवर्तन की भयानकता से मनुष्य-सभ्यता का बचाव किया जा सके।
हमारे मौसम-वैज्ञानिक हर बरस अनुमान-आधारित जो भविष्यवाणियाँ करते हैं, वे अक्सर ही गलत साबित होती हैं। यहाँ तक कि अच्छे मॉनसून की भविष्यवाणी से तो हम डरने भी लगे हैं। ग्लोबल-वॉर्मिंग के कारण पैदा होते जा रहे मौसम-परिवर्तनों ने पूरी दुनिया में एक अनिश्चितता का भयाक्रांत वातावरण रच दिया है। अब यह अनुमान लगाना बेहद कठिन होता जा रहा है कि कहाँ बारिश मारेगी और कहाँ सूखा मारेगा ? हम दुतरफा जल-संकट से घिरते जा रहे हैं। गर्मियाँ आते ही पीने तक के लिए पानी नहीं मिलता है और बारिश में घरों के चारों तरफ इतना पानी भर जाता है कि सब कुछ पानी-पानी हो जाता है। सूखा और बाढ़ दोनों ही त्रासदियाँ कहने को तो प्राकृतिक ही कही गई हैं, किन्तु इन विपदाओं के लिए मानव-निर्मित विकास की भूमिका भी कुछ कम संदिग्ध नहीं है। कुछ राज्यों में सूखे से संकट और बैंगलुरू में लगभग सवा सौ बरस की बारिश का रिकॉर्ड टूटना क्या हमें डराता नहीं है ?
बाढ़ के कारण, जीवन की तलाश में, पलायन की खबरों से अखबार अटे पड़े हैं। विस्तार से छप रही खबरें हृदय-विदारक और विस्मयकारी होते हुए आँखें खोलने वाली हैं। बाढ़ की तबाही का रिकॉर्ड, सदी का रिकॉर्ड तोड़ रहा है। स्थितियों को जस का तस ही पेश किया जा रहा है, न कि विस्तार में बढ़ा-चढ़ाकर, लेकिन अगर नदियों के जलस्तर में इसी तरह निरंतर बढ़ोतरी होती रही, तो बाढ़ की विकरालता में और अधिक प्रलयकारी भयंकरता आ सकती है। सरकारों की ओर से इस संदर्भ में जो भी कदम उठाए गए हैं वे फौरीतौर पर सही होते हुए ही अपर्याप्त ही हैं। सरकारों की ज़्यादातर नीतियाँ अल्पकालिक ही साबित होती रही हैं। आखिर नदियाँ क्यों अपना रास्ता बदल रही हैं ?
हमें यह समझने की भूल नहीं करना चाहिए कि बाढ़ सिर्फ भारी बारिश का प्रतिफल है। इसके लिए पीछे से आता जल-प्रवाह, कहीं अधिक ज़िम्मेदार है; क्योंकि जल-निकास की पर्याप्त व्यवस्था है ही नहीं। यह एक प्राथमिक, किन्तु अतिजटिल समस्या होती जा रही है। इस समस्या से ज़मीन का इस्तेमाल, जल-प्रबंधन, जल-प्रवाह, जल-निकासी और बाढ़ सुरक्षा तंत्र जैसे कई मुद्दे गहराई से जुड़े हैं। बाढ़ आने और जाने के बीच बीमारियों से बचाव भी एक बड़ा प्रश्न है।
मनुष्यता के संदर्भ में याद रखा जा सकता है कि दाना-पानी और चारा-पानी का इंतज़ाम ही सब कुछ नहीं है। बाढ़ से बचाव के लिए किए जाने वाले कार्य-उपायों में एक बेहतर तालमेल के साथ दीर्घकालिक-नीतियाँ अपनाने की बड़ी जरूरत है। बाढ़-प्रभावित राज्यों को होने वाला नुकसान उनके पुनर्निमाण और पुनर्वास के लिए अर्थव्यवस्था पर भारी पड़नेवाला है। इसके लिए नीति-निर्धारकों में बेहतर समन्वय ज़रूरी है।
मानाकि प्राकृतिक-चक्र को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है, किन्तु तबाही की तीव्रता को ज़रूर सीमित व नियंत्रित किया जा सकता है। बाढ़ से होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए तटबंध अंतिम समाधान नहीं है। बाढ़ रोकने की मंशा से बांध थोपने की शर्त अर्थहीन साबित हो चुकी है; क्योंकि प्रायः यही देखा गया है कि जल-प्रवाह के बाधित होने से नदियों ने अपने रास्ते बदले हैं और तमाम तटबंध तोड़े हैं। बाढ़ पर सिर्फ मौसमी-चिंतन की मुद्रा खतरनाक साबित हो सकती है।

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